पढ़ाई: स्मृति से सोच तक
|| राष्ट्रकवि दिनकर को एक विनम्र परंतु व्यंग्यबाणयुक्त पत्र ||
शब्द नतमस्तक हैं, पर व्याकरण इस समय थोड़ा बौखलाया हुआ है। आपके चरणों में यह पत्र इस आशा के साथ समर्पित है कि आप वहाँ स्वर्ग में भी किसी को धिक्कार रहे होंगे — किसी श्लोकविहीन मंत्री को, किसी भाषा-प्रेमी अफसर को, या फिर किसी ऐसे आलोचक को जिसने ‘हिंदी’ के नाम पर अपने ड्रॉइंग रूम की दीवारों को सजाया और दिल को कभी छुआ ही नहीं।
नजरिया: हम देखते कैसे हैं?
इस हिस्से में बताया गया है कि हमारी आँखें जो देखती हैं, वह वही नहीं होता जो हमारा मस्तिष्क ग्रहण करता है। Kanizsa triangle जैसे उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं कि हमारा मस्तिष्क अधूरी जानकारी को भी पूर्ण रूप में देखने का आदी है। यह 'पैटर्न रेकग्निशन' ही है जो हमें हर वस्तु को एक अर्थपूर्ण संरचना के रूप में देखने को प्रेरित करती है।
किसकी परीक्षा?
छलांग
बहुत दिनों से मैंने कोई नई किताब या मूवी नहीं देखी। पिछली मूवी पुष्पा-२ देखी थी। कभी निराशा हुई। जिस तरह के प्रोपेगेंडा साहित्य से आज समाज घिरा है, शोर्ट वीडियो के जमाने में तीन घंटा निकाल पाना भी आज कहाँ संभव है? हद तो तब हो जाती है, जब चलचित्र देखकर जवानी सड़कों पर नंगा नाच करती नजर आती है। डर लगता है, कहाँ हैं वे स्वप्नकार जो हमारे बच्चों के साथ न्याय कर सकें?
संवेदना से संवाद तक
I just woke up from the most catastrophic dream. I was inside a train, there came a boy to sell something outside the window. We shared an exchange of sight. Then, I saw him running away from track towards road, he met with an accident with a racing bike. Then I saw an airplane drop like a comet from sky, right where this accident happened. There was one another train going in opposite direction to the one I was on board. As my train started crawling, I saw the airplane race towards that train. From a distance I saw the airplane sliding towards that train. I saw it derail the entire train. Some boggy toppled on right and some on left. I cried that thousands of life would have been lost.
एक आदर्श कल्पना
चलिए! एक पल के लिए ही सही हम ख़ुद को आदर्शवादी मान लेते हैं। क्या होता है आदर्श? किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति का एक ऐसा स्वरूप जिसे हम पूर्णतः वांछित मान सकें, आदर्श है। हमारी कल्पनाओं और अवधारणाओं की पराकाष्ठा — आदर्श है। हर समाज में इसी आदर्श को स्थापित कर मूर्त रूप देने के मंथन में ना जाने कितनी कहानियाँ निकलती हैं, थोड़ा विष, थोड़ा अमृत लिए यह प्रयास निरंतर व्यक्ति के माध्यम से समाज में चलता ही जाता है।
काल्पनिक गुलामी या कल्पनाओं की गुलामी
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