अंधविश्वास: “विचारहीन विश्वास”
भरोसे को कोई प्रमाण नहीं चाहिए। इसलिए, आस्था भी अंधी हो सकती है। हम कल्पनाओं के साथ-साथ अपने भ्रम पर भी भरोसा कर सकते हैं। पर, ऐसा कर लेने से हमारी कल्पनाएँ सामाजिक इतिहास का हिस्सा नहीं बन जायेंगी। निःसंदेह, वे साहित्यिक इतिहास का भाग हैं। पर, इससे लोकतंत्र की राजनीति क्यों प्रभावित होती जा रही है? मेरी समझ से ‘आस्था’ केंद्र-विहीन ही हो सकती है। क्योंकि, केंद्र के आ जाने से ही सत्य सच से अलग हो जाता है। सत्य — अखंडित है, अटल है, स्थापित है। सत्य शून्य है। केंद्र के आ जाने से शून्यता ख़त्म हो जाती है। जहां से गणित की शुरुवात होती है — पहला, दूसरा, तीसरा ॰॰॰ और ना जाने कहाँ तक? अनंत, सच तक!