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एक घड़ी ही है,
जो अनवरत चलती जाती है,
जब तक बैटरी निपट ना जाये!
समय फिर भी नहीं रुकता!

वह दूसरी घड़ी में चलने लगता है,
जब घड़ी दस बजकर दस मिनट,
बजते ही खिलखिलाती है,
मैं भी उसे देखकर हँस पड़ता हूँ!

जीवन बीतता हुआ यह समय ही तो है,
जहां मुस्कुराने के मौक़े कम ही मिल पाते हैं,
कारण की अनुपलब्धि कम,
और अभावों का बोझ ही बड़ा भारी है!

जानता हूँ कि मर जाना है,
एक दिन, शरीर से परे चले जाना है, फिर?
फिर, क्यों इस नश्वर शरीर की इतनी चिंता करता हूँ?
जब मेरा मन जानता है कि मैं अमर हूँ!

ब्रह्म हूँ मैं,
पर मैं अकेला ब्रह्म तो नहीं,
तत् त्वम् असि,
मैं भी आप जैसा ही तो हूँ!

फिर क्यों मुस्कुराने की ज़रूरत नहीं जान पड़ती?
हर दिन घड़ी भी दो बार इज्जत से हंसती है,
विज्ञापनों और तस्वीरों में हर घड़ी,
हर घड़ी विहंसती है!

क्यों विज्ञापनों वाली शक्ल बनाने के चक्कर में…?
क्यों हम अपनी अभिव्यक्ति का शृंगार करते हैं?
क्यों खुलकर हम रो नहीं सकते?
क्यों हंसने से पहले हम दो बार सोचते हैं?
क्यों हम गालियाँ नहीं दे सकते?
क्यों अभिव्यक्ति के शृंगार को संस्कार से तौलते हैं?
क्यों अपने सौंदर्य को छिपाकर हम अपना मेकअप दिखाते हैं?
क्यों धर्म के ड्रामा को सभ्यता की पहचान समझते हैं?
क्यों भगवान को हम कहीं और तलाशते हैं?
क्यों हर समय, हर स्थान पर हम ख़ुद का मंदिर नहीं बनाते?
क्यों धारण करने की जगह धर्म की राजनीति का नाजायज़ मज़ा मार रहे हैं?

क्यों घड़ी से बिफ़क्र समय की तरह हम ख़ुद के लिए, ख़ुद की ख़ातिर, ख़ुद से ईमानदार नहीं हो सकते?
चुनाव हमारा है - घड़ी चाहिए या समय?

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.