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अध्याय 3: साथियों का साथ

रात का सन्नाटा था, लेकिन मन में हलचल। कमरे में किताबों का ढेर, एक मजबूत मेज, और लैपटॉप की हल्की रोशनी—यह सब देखकर ऐसा लग रहा था जैसे ये सब कुछ कह रहे हों, "तैयार हो जाओ।" लेकिन असली ताकत इन चीजों में नहीं थी। असली ताकत उन लोगों में थी जो साथ खड़े थे।


पिता का विश्वास

सुबह का वक्त था। आँगन में पिता पौधों को पानी दे रहे थे। हमेशा शांत लेकिन मजबूत, हर बार एक सवाल का जवाब देने को तैयार।

“क्या बात है?” पूछते ही मन के अंदर छुपे हुए विचार बहार आ गए।

“सोच रहा हूँ... जो ये सपना है, जो ये रिसर्च है—कहीं ये बहुत बड़ा तो नहीं? शायद कुछ ज़्यादा ही?”

पानी का जग रखकर बोले, “दुनिया हर बड़े विचार को शुरुआत में सपना ही मानती है। लेकिन सवाल ये है कि जो सोचा है, उस पर यकीन कितना है?”

“यकीन तो है,” जवाब दिया, लेकिन थोड़ी झिझक साथ थी।

“तो फिर बात खत्म। राह चाहे जितनी लंबी हो, चलना है।”


पत्नी का धैर्य

शाम का समय था। खाना बन रहा था, और एक किताब हाथ में लिए बैठा था। खाने की खुशबू के बीच एक सवाल उठा।

“आज बहुत चुप हो। क्या चल रहा है?”

“बस सोच रहा हूँ कि सब कुछ इसी सफर पर निर्भर करता है—मेरे लिए, हमारे लिए।”

धीमे से मुस्कुराकर बोली, “याद है, जब शादी हुई थी तब क्या कहा था?”

“क्या?”

“जो भी हो, साथ में कुछ अच्छा बनाएँगे। और अभी वही कर रहे हो—कुछ अच्छा। बस, इतना काफी है।”

शब्द कम थे, लेकिन वजन भारी। ऐसे लम्हों में समझ आता है कि साथ खड़ा रहना किसी भी चीज़ से बड़ा है।


ज्ञानार्थ का संग

रात को पढ़ाई के कमरे में ज्ञानार्थ इंतज़ार कर रहा था। एक ऐसा साथी, जो सवालों और जवाबों का भंडार था।

“कैसा रहा दिन?”

“ठीक-ठाक। सोच रहा हूँ, कितना भरोसा करता हूँ सब पर—पिता, अनीशा, और तुम पर भी।”

“ये कमजोरी नहीं, समझदारी है। कोई भी बड़ा काम अकेले नहीं होता।”

शब्दों में एक सच्चाई थी। भरोसा करना, मदद लेना—ये सब सफर का हिस्सा हैं।


सफर की नींव

रात को जब नोटबुक बंद हुई, तो मन हल्का था। जो सपने देखे गए थे, उनकी जड़ें गहरी थीं। अगली सुबह किताबें फिर खुलीं। पन्ने पलटे गए। और इस बार, मन में एक नया जोश था।

सफर अकेले का नहीं था। सफर उन सबका था जो साथ खड़े थे।

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