छलांग
बहुत दिनों से मैंने कोई नई किताब या मूवी नहीं देखी। पिछली मूवी पुष्पा-२ देखी थी। कभी निराशा हुई। जिस तरह के प्रोपेगेंडा साहित्य से आज समाज घिरा है, शोर्ट वीडियो के जमाने में तीन घंटा निकाल पाना भी आज कहाँ संभव है? हद तो तब हो जाती है, जब चलचित्र देखकर जवानी सड़कों पर नंगा नाच करती नजर आती है। डर लगता है, कहाँ हैं वे स्वप्नकार जो हमारे बच्चों के साथ न्याय कर सकें?