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छलांग

बहुत दिनों से मैंने कोई नई किताब या मूवी नहीं देखी। पिछली मूवी पुष्पा-२ देखी थी। कभी निराशा हुई। जिस तरह के प्रोपेगेंडा साहित्य से आज समाज घिरा है, शोर्ट वीडियो के जमाने में तीन घंटा निकाल पाना भी आज कहाँ संभव है? हद तो तब हो जाती है, जब चलचित्र देखकर जवानी सड़कों पर नंगा नाच करती नजर आती है। डर लगता है, कहाँ हैं वे स्वप्नकार जो हमारे बच्चों के साथ न्याय कर सकें?

सेक्स एजुकेशन की ज़रूरत

अगर ध्यान करना अपने अस्तित्व को चेतन रूप में निहारना है, तो संभोग का अपमान ठीक विपरीत प्रक्रिया है, जो उसके मूल उद्देश्य का विपरीतार्थक है। आज-तक मेरा अनुमान था की जिस सामाजिक यातना से हम हर रोज़ रूबरू होते हैं, उसकी जड़ें धार्मिक प्रवृति की हैं। इसलिए मैं धर्म से नफ़रत करता आया था। पर मेरे नये अनुभव और अद्ध्यन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा की अंदर से इन जड़ों में कामुकता या हवस का वास है। इंसान की कामुक अक्षमता ही हिंसा की जननी है - सोच और व्यवहार दोनों ही स्तरों पर। दार्शनिक भाषा में कहें तो वीर्य ऊर्जा के असंतुलन और असंतुलित प्रयाग से अशुभ की समस्या उत्पन्न होती है।

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