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समाज वह सच्चाई है जिसमें हम साँस लेते हैं, जीते हैं, मरते हैं। चलिए, आज के निबंध में हम समाज की अवधारणा पर प्रकाश डालते हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्य प्रजाति का पहला प्रमाण तीन लाख साल पुराना है। उनका यह भी मानना है कि विकास के इस क्रम में हमारे पूर्वज बंदर प्रजाति का ही एक विकसित रूप हैं। समाज की अवधारणा पर सिर्फ़ मनुष्यों का ही आधिपत्य नहीं है। बंदरों के समूह में भी समाज की कल्पना नज़र आती है। उन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः कभी आदमी भी ऐसे ही समाज का सदस्य रहा होगा। इस अनुमान को प्रमाण भी मिलते हैं, जब हमारा साक्षात्कार सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ग़ैर बराबरी से होता है। आदिवासी सभ्यता आज भी हमारे बीच मौजूद है। जहां हम आज हैं, हम वहाँ भी नहीं रह जाएँगे, समय अपना इतिहास इस वर्तमान में ही लिखता आया है।

अभी यहाँ हम दर्शन और इतिहास के आईने में समाज की अवधारणा को स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे। हम देखेंगे कि कैसे भाषा साहित्य और समाज उस कल्पना को आकार देते हैं, जिसे हम हर दिन जीते आये हैं।

विकिपीडिया के अनुसार — “समाज एक से अधिक लोगों के समुदायों से मिलकर बने एक वृहद समूह को कहते हैं जिसमें सभी व्यक्ति मानवीय क्रियाकलाप करते हैं। मानवीय क्रियाकलाप में आचरण, सामाजिक सुरक्षा और निर्वाह आदि की क्रियाएं सम्मिलित होती हैं। समाज लोगों का ऐसा समूह होता है जो अपने अंदर के लोगों के मुकाबले अन्य समूहों से काफी कम मेलजोल रखता है। किसी समाज के आने वाले व्यक्ति एक दूसरे के प्रति परस्पर स्नेह तथा सहृदयता का भाव रखते हैं। दुनिया के सभी समाज अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए अलग अलग रस्मों रिवाज़ों का पालन करते हैं।”

प्रकृति में हुए विकास के इतिहास के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी ना किसी कालक्रम में कुछ बंदरों की प्रजाति का विकास बौद्धिक प्राणी में हुआ होगा। संभव है कि भूगोल ने भी यहाँ अपनी भूमिका निभायी होगी। पृथ्वी के विकास का इतिहास कम से कम साढ़े चार बिलियन साल पुराना है। कितने प्रमाण तलाश कर इंसान अपनी उत्पत्ति का तार्किक आधार ढूँढ पाएगा, संभवतः विज्ञान के पास भी इसका अनुमान नहीं होगा।

पृथ्वी की भौगौलिक संरचना भी विकास के इस क्रम में बनती-बिगड़ती आयी है। ड्रैगन काल्पनिक हो सकते हैं, पर डायनासोर के पुरातत्व प्रमाण मिले हैं। कभी ना कभी ऐसे विशालकाय जीव भी इस धरती पर विचरण किया करते थे। शायद कभी काल के गाल में यह दुनिया भी समा जाएगी। कौन जानता है।

पर हम इतना जरुर जानते हैं कि मनुष्य होने के नाते हम एक सामाजिक प्राणी हैं। तो कम से कम हमारे बीच समाज की अवधारणा पर एक स्पष्ट सामूहिक समझ होनी भी जरुरी है। एक परिभाषा हमारे सामने है। चलिए उस पर थोड़ा मंथन करते हैं।

समाज होने की पहली शर्त है कि एक से अधिक लोगों का होना जरुरी है। एक व्यक्ति समाज नहीं बना सकता, पारिभाषिक स्तर पर ही वह असमर्थ है। इस तार्किक आधार पर हम परिवार को समाज की सबसे छोटी इकाई मान सकते हैं। चलिए, पहले परिवार को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। परिवार क्या है?

विकिपीडिया के अनुसार — “परिवार (family) साधारणतया पति, पत्नी और बच्चों के समूह को कहते हैं, किंतु दुनिया के अधिकांश भागों में वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह है जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा स्वीकृत व्यक्ति भी सम्मिलित हैं।”

देखा जाये तो व्यक्ति अपनी अवधारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परिवार की रचना करता है। क्या हमारे बच्चे हमारा सपना नहीं हैं? क्या अर्थोपार्जन और जीविकोपार्जन की दौड़ में दौड़ती यह दुनिया इसी दिवास्वप्न के पीछे नहीं भाग रही है?

इस तरह से परिवार ना सिर्फ़ समाज की सबसे छोटी इकाई है, बल्कि वह सबसे छोटी आर्थिक इकाई भी है। भारतीय अर्थशास्त्र इस बात के प्रमाण लिए बैठा है कि कैसे भारतीय कृषि प्रधान सभ्यता में परिवार ही अर्थ की बुनियाद था। क्योंकि, परिवार ही उत्पादन का केंद्र हुआ करता था। वैसे Economics में भी कुछ मिलती जुलती अवधारणायें हैं। Economics में जो Ecos है, वह घर परिवार ही तो है। औद्योगिक क्रांति ने वैश्विक Economy के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यस्था के इस समीकरण को बदल कर रख दिया। आधुनिक युग में दुनिया जितनी वैश्विक और उसकी अर्थव्यवस्था जितनी विकराल होती जा रही है, उतनी ही छोटी परिवार की अवधारणा होती जा रही है। अर्थ के बंदर बाँट ने परिवार की कल्पना का बंटाधार कर रखा है।

ख़ैर, अब वापस हम समाज की अवधारणा पर पहुँचते हैं। अगर विकासवाद के तार्किक समीकरण को हम आधार बनायेंगे, तो कहीं ना कहीं जाकर हम एक ऐसी इकाई पर पहुँचेंगे जहां से विखंडन की प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ होगा। भौतिकी ने इसे God Particle का नाम दिया है। जन सामान्य ना जाने कब से भगवान का जाप किए जा रहा है। भारतीय दर्शन ने विकासवाद के कई तार्किक आधार दिये हैं। जिनमें सबसे मज़बूत व्याख्या अद्वैत दर्शन में मिलती है। यहाँ प्राचीन भारतीय दर्शन का सीधा साक्षात्कार आधुनिक पाश्चात्य Philosophy से होता है। ख़ैर, इस बात पर हम विस्तार से कभी और चर्चा करेंगे। फ़िलहाल मुद्दा समाज है।

समाज की अवधारणा के अनुसार यह एक ऐसी व्यवस्था है जहां व्यक्ति का विकास होता है। ना सिर्फ़ व्यक्ति बल्कि व्यक्तित्व का निर्माण और निर्धारण समाज ही करता है, जिसमें परिवार की एक अहम भूमिका होती है। क्योंकि, दैनिक क्रियाकलाप व्यक्ति परिवार के दायरे में ही रहकर कर सकता है। एक तरह से देखा जाये तो हमारी सबसे बुनियादी जरूरतों की पूर्ति परिवार करता है। माँग और आपूर्ति की इस इकॉनमी में विवाह के अलावा खाना और खतरा भी अहम हैं। देखा जाये तो आधुनिक समाज में ही नहीं इंसानियत के इतिहास में रसोई परिवार का निर्धारण करती है। जितने लोगों की रोज़ी-रोटी एक रसोई पर निर्भर करती है, हम उसे Immediate Family या सगे संबंधियों के रूप में जानते हैं। बाक़ी, बचा खतरा जो हमारे रिश्ते-नातों का व्यावहारिक आधार बनता है। विपत्ति में जो जितना काम आता है, वह व्यक्ति या परिवार हमारे परिवार का उतना हिस्सा बनता जाता है।

इसी अवधारणा के आधार पर हम सब मिलकर एक राष्ट्र की कल्पना को आकार देते हैं, जब हमें बचपन में इस प्रतिज्ञा को रटवाया जाता है — "All Indians are my brothers and sisters”, और तार्किक प्राणी होने के नाते हम मन ही मन यह बुदबुदाना भी नहीं भूलते — “Except ONE!”

इस तरह से हम एक वैश्विक परिवार की अवधारणा पर पहुँचते हैं। सिर्फ़ भारतीय ही क्यों, क्या व्यक्ति व्यक्ति पर बुनियादी जरूरतें बदलती जाती हैं?

सही जवाब नहीं, सही सवाल में हमारी समस्या का हल मिलता है। चलिए कुछ और सवाल खोजते हैं। फ़िलहाल आज आपके लिये एक बड़ा सरल आवेदन है — अपनी टीका-टिपण्णी में जरुर अपनी अवधारणाओं को साझा करें। आप चाहें तो मुझे गाली भी दे सकते हैं। मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आपकी गालियों का भी आभारी रहूँगा।

मिलते हैं अगले निबंध के साथ जो होगा साहित्य के ऊपर, क्योंकि निःसंदेह संवाद और विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम भाषा बनती है। जो समाज की कल्पना को हमारा सच बनती है। परंतु वह साहित्य ही है जहां हम भविष्यवाणी करने को स्वतंत्र हैं। साहित्य ही समाज की नैतिकता का कैसे निर्धारण करता है, चलिए अगले निबंध में सोचने की कोशिश करते हैं।