Skip to main content
Submitted by admin on
VideoEssay

कल्पना कीजिए! एक दिन राह चलते आपको अलादीन का चिराग़ मिल गया। आपने उसे उठाया, रगड़ा, उधर से एक जिन्न प्रकट हुआ। कहता है — “हुकुम मेरे आका, आपने मुझे आज़ाद किया। आज से मैं आपका ग़ुलाम हूँ। आपकी हर इच्छा मेरे सिर आँखों पर। निश्चिंत हो जाइए, अब आपकी ज़िंदगी में कोई परेशानी नहीं बचेगी।”

आपने भी कहानियाँ तो पढ़ी ही होंगी, परियों की कहानी, राजा-रानी की प्रेम कहानी, अलादीन का नाम तो सुना ही होगा। आपने हिचकिचाते हुए जिन्न से पूछा — “कितने वरदान मिलेंगे?”

जिन्न ने जोरदार ठहाका लगाया, बोला — “आप मालिक हो, मालिक! आप हुकुम दो, जब तक आपका मन नहीं भर जाता, तब तक माँगिये।”

आपको भी लगा कि अरे! यह तो चमत्कार हो गया। लॉटरी लग गई। अब जीवन में पैसा ही पैसा होगा। पहले आपने पैसा माँगा, ताजे-ताजे नोटों से भरी एक गाड़ी सीधे बैंक से चलकर आपके दरवाज़े पर खड़ी हो गई। अब तो हर जगह आपका नाम होगा क्योंकि एक जिन्न आपकी हर इच्छा तुरंत पूरी करता है। दुनिया की सब सुख-सुविधाएँ उसने आपके कदमों पर ला पटकीं। मज़े में दिन कट रहे हैं। पार्टियाँ चल रही हैं, जश्न का माहौल है। सोते-उठते, कई दिन बीत गये। जीवन में अब कोई कमी नहीं बची।

अब आप जैसे दरियादिल इंसान ने अपने पड़ोसियों को भी जिन्न उधार पर देना शुरू कर दिया। खाना, कपड़ा, मकान, सुख, सुविधा, सब कुछ से ना सिर्फ़ आपका घर परिवार बल्कि देखते-देखते ख़ुशहाली से पूरी दुनिया भर गई। कहीं गरीबी नहीं बची, कोई दुख नहीं बचा, बुराई भी नहीं बची, ना कुछ जीतने को ही बच गया, ना ही कुछ हारने को। समाज भी बराबर हो गया, राजनीति की कोई जरूरत ही नहीं बची। कहीं कोई कमी ही नहीं थी, इसलिए अर्थशास्त्र ने भी संन्यास ले लिया। सबके पास सब कुछ है।

अब आप क्या करेंगे?

चलिए! इस वीडियो निबंध के जरिये इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं।

दुनिया तो आज वैश्विक हुई है। पहले कहाँ थी? एक जगह से दूसरी जगह जाने में महीनों महीनों लग जाते थे। ना जाने रास्तों की कितनी अनिश्चितताओं का सामना करते हुए Vasco da Gama भारत पहली बार 20 मई, 1498 को कालीकट बंदरगाह पर पहुंचे होंगे। फिर भी सोचिए भूगोल से विभाजित उन साहित्यों के बारे में जहां देश-काल के परे भगवान से लेकर हैवानों की कल्पना कितनी मिलती जुलती विकसित होती आयी हैं। अलादीन का जिन्न हो या महाभारत का बकासुर, सिंड्रेला की दरिद्रता हो या परियों की कहानियाँ — हर भाषा के साहित्य में एक जैसे ही दर्ज मिलते हैं। किरदार बदलते जाते हैं, कहानियाँ वहीं रह जाती हैं। उसी कहानी में कभी रोमियो जूलिएट आ जाते हैं तो कभी हीर रांझा। एक जमाना था जब सरसों के खेत में बाँहें पसारे राज अपनी सिम रन को बुलाता था और पिताजी के बाहों से छूटती सिम रन अपनी ज़िंदगी जीने चल पड़ती है। आजकल लेडीज लोग लापता हो गई हैं, और जेंट्स लोग एनिमल बने घूम रहे हैं।

कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं, जिन्हें प्रमाण मिल जाते हैं। पर, ध्यान रहे साहित्य को प्रमाणों की कोई दरकार नहीं होती। यहाँ लेखक कुछ भी लिखने को, कहने को स्वतंत्र है। उसने लिख दिया कि उसकी दुनिया में सब हाथ के बल चलते हैं, तो वे वैसे ही चलेंगे, यहाँ न्यूटन के नियम लागू नहीं होते, जरुरी नहीं है सेब जमीन पर ही गिरे, वह उड़कर चाँद पर भी गिर सकता है। किसने उसे रोका है? क्या साहित्य वह जिन्न नहीं है, जिससे आपकी मुलाक़ात इस निबंध के पहले ही मोड़ पर हुई थी?

विज्ञान से लेकर इतिहास को प्रमाण चाहिए। पर साहित्य को नहीं, क्योंकि प्रेम, वात्सल्य, और नफरत जैसे भावों को विज्ञान साबित नहीं कर सकता। पर कहानी कर सकती है, कविता भी, उसे किसी का डर नहीं। साहित्य हमें निर्भयता का बोध कराता है। किसी सनकी बादशाह ने मोहब्बत को दफ़नाकर उस पर ताज महल बनवा दिया। सुना है ताज महल बनाने वाले कारीगरों के हाथ तक काटकर उस जालिम ने जमा करवा लिए थे, ताकि कोई दूसरा ताज महल ना बनवा ले। यहाँ प्रेम कहाँ था? शायद लंबी छुट्टी पर चला गया होगा। फिर समाज और राजनीति में करुणा का ऐसा अकाल पड़ा कि उसके बाद का इतिहास बड़ी मुश्किलों का सामना करते हुए खून, बलिदान, फिर सत्याग्रह से लेकर स्वतंत्रता के तिरंगे तक पहुँचा। इतिहास में भी तार्किक जीवन का आधार साहित्य ही बनता आया है। अर्थशास्त्र क्या करता अगर साहित्य ने समाज को बताया नहीं होता कि वह कितना दरिद्र है?

कभी जिस पुष्पक विमान में रावण लंका से पधारे थे, वह आज हर दिन उड़ान भरता है। राम की इस धरती को लंका से ही नहीं पूरी दुनिया से जोड़ता है। सोचिए अगर किसी ने उड़ने की कल्पना ही नहीं की होती तो क्या हम कभी उड़ पाते? कभी दूरदर्शन से लेकर दूरभाष भी साहित्य था, वरना सोचिए संजय महाभारत का आँखों देखा हाल कैसे सुना रहा होता? रेडियो के युग से होते हुए आज स्मार्टफ़ोन पर यहाँ अभी आप साहित्य का सामना ही तो कर रहे हैं। एक पल थमकर सोचिए जीवन और साहित्य में क्या रिश्ता है?

क्या हमारा जीवन एक कहानी नहीं है?

साहित्य हमें ऐसे सवालों और कल्पनाओं का सामना करने की हिम्मत देता है। मृत्यु की सत्यता को साहित्य ही तो ललकारता आया है। यही नहीं किरदारों के बहाने वह हमें ख़ुद को पढ़ने का मौक़ा देता है। क्योंकि एक ही लेखक उस भगवान की रचना करता है, और उस महाभारत की भी जहां उसके विराट रूप को वह दिखा सके। क्या कृष्ण और वेद मुनि का अस्तित्व एक दूसरे से स्वतंत्र है? क्या करते पांडव पूरी महाभारत में अगर कौरव ही नहीं होते? साहित्य हमारे जीवन में आदर्श की स्थापना करने में अपनी तानाशाही भूमिका निभाता है। स्वर्ग और जन्नत दोनों से हमारी चेतना का साक्षात्कार साहित्य ही तो करवाता आया है। महाभारत ही नहीं रामायण में भी। नैतिकता का जो पाठ कोई विज्ञान हमारे बच्चों को नहीं पढ़ा सकता, वह साहित्य हंसते हंसाते उन्हें गहरी नींद में सुला देता है, स्वप्न लोक में निर्भय घूमते ये बच्चे ही तो नयी कहानियाँ बुनते हैं, जो साहित्य दुहराता ही जाएगा।

एक साहित्य ही है, जहां मरणशील प्राणी अमर हो सकता है। क्योंकि, खुली आखों से सपने देखने की इजाजत भी हमें साहित्य ही तो देता है। जहां सोच है, सपने हैं, भावनाएँ हैं, कल्पनाएँ हैं, इच्छाएँ हैं, वहाँ भी साहित्य हैं, और जहां कुछ नहीं बच जाता वहाँ भी शब्द ही बच जाते हैं। अद्वैत दर्शन में जब जगत को मिथ्या बताया जाता है, तब भी उसका तात्पर्य काल और स्थान की क्षणभंगुरता पर है, जिसकी दास्तान विस्तार से साहित्य और इतिहास का हर पन्ना हमें सुनाता है।

ज्ञान-विज्ञान की हर विधा साहित्य के मुक़ाबले असहाय है। क्योंकि, अपनी बात की सत्यता को निर्धारित करने के लिए उन्हें प्रमाण लगते हैं। साहित्य को किसी प्रमाण की जरूरत नहीं होती। शब्द ही यहाँ पर्याप्त हैं। नैतिकता के पहरे से भी साहित्य पूरी तरह आज़ाद है, समाज और राजनीति की कोई जंजीर खयालों की उड़ान को नहीं रोक पाये हैं। इसलिए, जहां भाषा विचारों के आदान-प्रदान तक ही सीमित है, वहीं साहित्य नैतिकता से लेकर भावनाओं के प्रचार प्रसार का माध्यम बनता है। नीतिशास्त्र का दायरा भी विचारों से शुरू होता है, ना की कल्पनाओं से, क्योंकि विचारों में कर्म की संभावना हो सकती है। कल्पनाओं पर ऐसी पाबंदी नहीं होती, विचार अपने आप में व्यक्ति की अवधारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर करता है। परंतु, इन अवधारणाओं और कल्पनाओं में जब तक कर्म की उत्तेजना प्रबल नहीं होती, तब तक  वे विचार नहीं बन जाते हैं। इसलिए विचार और परिणाम स्वरूप कर्म नैतिकता की शर्तों पर आश्रित हैं, पर सपने नहीं। फिर भी क्या सही है, क्या गलत, इसका निर्धारण नीतिशास्त्र साहित्यकारों के साथ मिल जुलकर ही करता आया है। Moral of the Story के बिना कोई कहानी आज भी कहाँ पूरी होती है?

आज आपके लिये एक पहेली है, जिसे आपको सुलझानी है।

कुछ है ऐसा जो कल्पना नहीं है,
जादू है ऐसा कोई नहीं जो जानता नहीं है,
विचार नहीं, संभावना भी नहीं,
कोई भावना या अवधारणा भी नहीं,
ज्ञात है, पर ज्ञान नहीं,
स्पर्शनीय होकर भी उसे कोई छू नहीं सकता,
ब्रह्म है!
सच्चिदानंद है!
सत्यम शिवम् सुंदरम् भी,
दर्शनीय है!
दिखता भी,
साहित्य में भी है, विज्ञान में भी,
जहर भी है, अमृत भी,
सर्वशक्तिशाली है,
जितना मेरा है, आपका भी,
वह क्या है?

जवाब मिले तो टिपण्णी करना ना भूलें। वरना आपके अनुमानों का भी मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आभारी रहूँगा।

साहित्य हमें उन किरदारों के गिरेबान में झांकने का मौक़ा देता है जिन्हें हम शायद जी नहीं पाएँगे। और जहां तक रहा उस पहेली का जवाब जहां से आज की कहानी शुरू हुई थी की आप क्या करते अगर दुनिया में कोई दुख नहीं बच जाता तो, ख़ुद ही सोचकर बताइए।

मेरे अनुमान से मैं तो दुख की तलाश करता, क्योंकि खतरा हमें जितना डराता है, उतना लुभाता भी तो है। सुख का अस्तित्व दुख पर उसी तरह निर्भर करता है जैसे तपती धरती बारिश का इंतज़ार करती आयी है। हमारे सामाजिक अस्तित्व पर कटाक्ष करते हुए Jean-Paul Sartre ने कहा है — “If you are lonely when you're alone, you are in bad company.” फिर उन्होंने यह भी बताया कि स्वतंत्र होने के लिए मनुष्य अभिशप्त है, क्योंकि पूर्ण स्वतंत्रता की इकलौती शर्त अकेलापन है। अकेला व्यक्ति समाज के बिना आज़ाद तो है, पर अगर वहाँ भी वह बेचैन है, तो सुख-दुख से परे आनंद का अंदाज़ा भी उसे कहाँ है? साहित्य हमें मुक्ति का मार्ग दिखाता है। और स्वभाव से ही मनुष्य एक जिज्ञासु प्राणी है। बिना साहित्य के तार्किक प्राणी को जिजीविषा से और कौन जोड़ सकता है?

क्योंकि, सपनों का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता, फिर भी वे काल्पनिक नहीं होते। उनकी भी आत्मा होती है, चेतना भी, पर कल्पनाओं और सपनों के पास ऐसा कोई शरीर नहीं है जिसे प्रताड़ित किया जा सके। साहित्य हमें अमरता के सपने देखने की इजाजत भी देता है, और आधार भी। हर गली, नुक्कड़ पर हम किसी को अपनी कहानी सुनाते भी हैं, और उनकी कहानियाँ सुनते भी हैं। तभी तो संवाद होता है, रिश्ते बनते हैं, समाज बनता है। जिस समाज का साहित्य जितना समृद्ध होगा उसकी अर्थव्यवस्था भी उतनी ही धन धान्य होगी। धारावाहिकों और चलचित्रों के बीच आता प्रचार भी साहित्य है, अखबारों में पढ़ी जाने वाली खबरें भी साहित्य ही तो हैं। फ़ेसबुक से लेकर इस वीडियो निबंध में भी साहित्य नहीं तो और क्या है? आप जहां चाहोगे साहित्य को वहाँ पाओगे, हर काल और स्थान एक ना एक कहानी लिए बैठा है। हर धर्म के पास भी अपना-अपना साहित्य है, क्रांतिकारियों का भी साहित्य होता है और आतंकवादियों का भी। हर साहित्य एक ही कहानी दुहराता है, जीवन पर जीत के फसाने सुनाता है। नायक वही होता है जो जीवन के पक्ष में होता है।

ज्ञानाकर्षण के अगले पड़ाव पर मन और उसके विज्ञान के साथ अगले निबंध में मैं ज्ञानार्थ शास्त्री फिर वही कहानियाँ सुनाने वापस आऊँगा, जो आप ने पहले भी कहीं ना कहीं जरुर सुनी होंगी। उन्हीं कहानियों को सुनने एक बार फिर आपका स्वागत है।

 

Podcasts

Audio file

The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.