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VideoEssay

दूर देश में एक कबीला था। जंगलों में प्रकृति के करीब जीवन अदभुत सौंदर्य का प्रत्यक्ष था। कबीले में एक ही वंश के कई परिवार रहते थे। ना सिर्फ़ जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी हो रही थी, बल्कि उन गुफाओं की वास्तुकला भी देखने लायक़ थी। दैनिक क्रियाकलाप में जब फुरसत मिलती है, तब मन कला और साहित्य की तरफ़ निकल पड़ता है। ऐसा ही कुछ इस कबीले में भी देखने को मिला। पर, काल और स्थान दोनों ही परिवर्तन के शिकार होते हैं। शरीर के अर्थ पर स्थान के अभाव का बोझ है, और मन समय का गुलाम। समय के साथ कबीले की आबादी बढ़ी, कुछ लोग नये बने, कुछ बाहर से आ धमके। काल और स्थान पर माँग का दवाब बढ़ा। अर्थ का उत्पादन माँग से कब कम हुआ किसी को कानों कान खबर तक ना लगी। फिर शुरू हुआ वाद विवाद, जो धीरे धीरे हिंसात्मक होने लगा। एक लंबे अरसे तक इतिहास ख़ुद को लिखना भी भूल गया। कबीले वासियों का दैनिक जीवन अस्त व्यस्त होने लगा।

अनुभव के आधार पर कबीले वालों को दिखने लगा कि कुछ लोग जिनके पास शारीरिक शक्ति की प्रचुरता है, वे मनमानी करने लगे हैं। जब यह अनुभव व्यक्ति के सामने खतरा बनने लगा, तब लोगों में संवाद के माध्यम से भ्रम और संशय के आदान प्रदान की कोशिशें शुरू हुईं। भावों से भाषा तक की अनुपलब्धि ने चेतना को अभाव का ज्ञान दिया। जब भी मन अपनी कमज़ोरियों का दर्शन पाता है, तब तब उसकी बेचैनी और जिजीविषा उसे अर्थ के निर्माण पर मजबूर कर देती है। ऐसा ही कुछ इस कबीले में भी देखने को मिला। शोषित प्रताड़ित मन जो अकेला कुछ कर ना पाता, वह सहारा ढूँढने निकल पड़ा। जिस देश काल में हर मन एक ही दुख का मारा हो, वहाँ समूह का बलवान बनते जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामूहिक आंदोलन ने शरीर की शक्ति को आसानी से हरा दिया। अब मन का राज पाठ शुरू हुआ। बुद्धि का राज तिलक हुआ, इतिहास में दर्ज भी हुआ, साहित्य भी लिखे गये — कवितायें, कहानियाँ, संगीत, नृत्य, सब निखर उठे।

कुछ पीढ़ियों ने सुकून के साँस भी भरे। फिर एक नयी चुनौती सामने आयी। इस बार चुनौती और भी विकराल है। शरीर की शक्ति तो शरीर को ही प्रताड़ित कर रही थी, मन को पता तो चल रहा था। अब जब अशिक्षित बुद्धि और अहंकार पर मन के शोषण का दौर शुरू हुआ, तब से चेतना यह अनुमान तक नहीं लगा पा रही है कि उसका अस्तित्व किन खतरों का सामना कर रहा है। जिस चेतना में करुणा जागी, उन्होंने समाज और सभ्यता को शिक्षित करने की कोशिश की। इसी क्रम में दर्शन से लेकर साहित्य से होते हुए एक दिन बुद्धिजीवी वर्ग राजनीतिशास्त्र तक जा पहुँचा।

विकिपीडिया ने राजनीति को इन शब्दों में परिभाषित किया है — “राजनीति दो शब्दों का एक समूह है राज जोड़ नीति जिसमें राज का मतलब शासन और नीति का मतलब उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला अर्थात् नीति विशेष के द्वारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना राजनीति कहलाती है।”

चलिए, इस वीडियो निबंध में राजनीति की व्यक्तिगत अवधारणा पर मंथन करते हैं।

एक हद तक यह संभव है कि राजनीति को ही विपत्ति मानकर हम ख़ुद को उससे दूर रखें, फिर भी यह संभव नहीं है कि राजनीति हमसे दूरी बना ले। सामाजिक प्राणी होने के नाते जिस समाज में हम रहते हैं, उसकी राजनीति का प्रभाव हमारे अस्तित्व पर पड़ता ही रहेगा। कहाँ भागकर अब हम जाएँगे, जहां जाएँगे एक नयी राजनीति हमारा इंतज़ार कर रही होगी। अच्छी या बुरी नहीं, हर अस्तित्व की अपनी अपनी जरूर होती है, चाहे वह शारीरिक हो, या काल्पनिक। राजनीति को समझना भी इसलिए जरुरी है क्योंकि उसका अस्तित्व हमारी सच्चाई है। प्लेटो महोदय ने कितने सुंदर शब्दों में राजनीति की इस सच्चाई को जताया है —“One of the penalties for refusing to participate in politics is that you end up being governed by your inferiors.”

क्या कोई स्वाभिमानी प्राणी ऐसी मुसीबत को शौक़ से अपने घर आँगन में आमंत्रण देना चाहेगा? नहीं, बिलकुल नहीं। ऐसा कोई क्यों करना चाहेगा?

एक तार्किक प्राणी अपने देश और काल की राजनीति से क्या क्या अपेक्षायें पाल सकता है। चलिए, इस वैचारिक निबंध में सोचने का प्रयास करते हैं। कैसे राजनीति और उसका विज्ञान हमारे अस्तित्व पर असर डालते है? आइये, देखते हैं।

पहला, हम क्या कर सकते हैं, क्या नहीं, इसका निर्धारण कौन करता है? स्वतंत्रता के अभिशाप ने हमारी चेतना को राजनीति की ना जाने कितनी बेड़ियों में जकड़ रखा है। यहाँ तक कि क्या खाना है, क्या पहनना है, इसका निर्धारण भी क्या राजनीति नहीं करती है। सामाजिक और पारिवारिक अर्थ का अनुमान भी पॉलिटिक्स ही लगता आया है। नियम क़ानून बनाने में इसकी कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी है। महाभारत की रणनीति से लोकतंत्र में बराबरी की लड़ाई में अक्सर विविधता ख़तरे में पड़ जाती है, जो व्यावहारिक दुनिया की एक मात्र समृद्धि है, क्योंकि जीवन विविधता में ही सौंदर्य और अर्थ को तलाश सकता है। बराबरी और विविधता में क्या संबंध है?

राजनीति की दूसरी जिम्मेदारी इस सवाल का जवाब भी हमें देती है। प्रतिनिधित्व की ज़िम्मेदारी, जो राजशाही से लेकर तानाशाही और मौजूदा लोकतांत्रिक राजनीति का आधार बनती है। नीति निर्धारण जो पॉलिटिक्स की बुनियाद है, उसे भी जन जीवन की विविधता का खयाल रखना पड़ता है। क्योंकि बराबरी से ज्यादा हमारे अस्तित्व को सुरक्षा की जरूरत जान पड़ती है। व्यक्तिगत शरीर और मन का संतुलन बनाये रखना ही तो समाज से लेकर परिवार का दायित्व है। अगर परिवार और समाज ही नहीं बचा, तो सोचिए राजनीति क्या अचार डालेगी?

इस तरह हम राजनीति की तीसरी भूमिका पर पहुँचते हैं, जो अधिकार की बातें करता है। स्वतंत्रता, समानता, और न्याय के आदान प्रदान का माध्यम पॉलिटिक्स ही तो है। जिसके अंतर्गत भेदभाव, सामाजिक न्याय और मानवाधिकार जैसे मुद्दों को संबोधित करना भी शामिल है। समाज की पहचान, जिसमें व्यक्ति और व्यक्तित्व का विकास होता है, वह राजनीति ही तो तय करती है। सामाजिक और आर्थिक समृद्धि की कल्पना ही तो राजनीति को अर्थ देती है। स्वतंत्रता के मोड़ पर जब भारतीय राजनीति खड़ी थी, तब गांधीजी ने राजनीति की कुछ ऐसी व्याख्या दी थी — “नीति रहित राजनीति एक घोर पाप है।”

भ्रष्टाचार से लेकर अत्याचार के ऐतिहासिक प्रमाण राजनीति की चौथी कल्पना से हमारा परिचय करवाते हैं। अर्थ के विभाजन और वित रण की जिम्मेदारी आदिकाल से राजनैतिक ही रही है। क्योंकि उसकी जिज्ञासा से लेकर दिलचस्पी का केंद्र आर्थिक ही तो है। ज्ञानाकर्षण की इस परिक्रमा के आखिरी चरण में हम अर्थ की कल्पना करेंगे।

कल्पना करने और सपनों को आकार देने में शब्दों और साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। एक ही साहित्य पढ़ने लायक़ होता है, वही जो हमने ख़ुद के लिए लिखा है। आपकी कल्पनाओं की उड़ान को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में विज्ञान नहीं साहित्य ही ईंधन का काम करता है। जाने से पहले मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आपका ध्यान एक छोटे से आलेख की तरफ़ ले जाना चाहता हूँ, जिसका शीर्षक है — “तितली-जीवन”, उम्मीद है एक लेखक की लिखी चिट्ठी जो उसने अपनी बेटी को संबोधित करते हुए लिखी है आपको जरुर पसंद आयेगी।

व्यावहारिक राजनीति में भी आदर्शों का अपना महत्व होता है। लोकतंत्र की अवधारणा उसे डेमोक्रेसी के अर्थ कहीं समृद्ध कर जाती है। क्योंकि, लोक में लोग ही नहीं पेड़, पौधों से लेकर जानवरों के लिए भी जगह होती है। पूरा पर्यावरण, उसकी प्रकृति और प्रवृति भी इस परिभाषा में शामिल हो जाते हैं। आधुनिक युग में जहां औद्योगिक क्रांति के दुष्प्रभाव ने साँसों तक को प्रदूषित कर रखा, मन का भ्रष्ट होना तो सामान्य बात है, सूचना क्रांति ने तो चेतना के स्तर तक भ्रष्टाचार को नीतिशास्त्र के दायरे में ला खड़ा किया है।

बाकी हर उत्तरदायित्व से कहीं महत्वपूर्ण मनुष्य के लिए वह देश काल और उसका पर्यावरण है, जिसका वह पात्र मात्र है। राजनीति की जवाबदेही में प्रकृति का कतरा कतरा शामिल है। पिछले कुछ सालों में सतत विकास या Sustainable Development की अवधारणा ने वैश्विक राजनीति में अपनी जगह सुनिश्चित तो कर ली है, पर कार्यान्वयन के स्तर पर अभी भी अनुपलब्धि का ही अनुमान लगाया जा सकता है। ख़ैर, जैसा कि आपने देखा अपनी दार्शनिक भूमिका में राजनीति हमारे वर्तमान के साथ साथ हमारे भविष्य का भी निर्धारण करने में अपनी अहम भूमिका निभाती है। जिसमें इतिहास और साहित्य से जुड़ी रचनायें पॉलिटिक्स की अवधारणा और उसकी कल्पना को आकार देती है। जिसका प्रभाव व्यक्तिगत और सामाजिक मन पर देखने को मिलता है। यह पूरा समीकरण अर्थ को केंद्र में रखता है, जो अगले निबंध में ज्ञानाकर्षण का भी केंद्र बनेगा।

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.