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मन कहाँ मानता है?

दुनिया में हमारे दुख का जोड़ा नहीं होता,
दुख की दौड़ में भागती यह दुनिया,
सुख की मृगतृष्णा लिए भटक जाती है,
चेतना द्रष्टा मात्र है,
क्रिया के संपादन में असमर्थ है, 
फिर भी आनंदित है, 
हर पल हर जगह,
उसे सुख या दुख से कोई लेना देना है ही नहीं,
पर मन भावुक है,
भावनाओं में बह जाता है,
सोचिए अगर चेतना आनंदित नहीं होती,
तो यह दुनिया कैसे झेल रही होती?
जितनी ज़रूरत हमें इस दुनिया की है, 
उतनी ही ज़रूरत उसे भी हमारी है,
खेल में अगर कोई ना कोई जीतता,
ना ही कोई हारता,
तो सोचिए भला कोई क्यों खेलता?
जीवन हम वैसे ही जीते हैं,
जैसा हम घर आँगन बनाते हैं,
क्यों हम अपना घर बनाने से कतराते हैं?
घर हम वैसा ही बना पाते हैं,
जैसी हम कल्पना करते हैं,
अगर ख़ुद नहीं कर पाते हैं,
तो कल्पना भी हम उधार लेते हैं,
होम लोन पहले से था ही,
किश्तों में ही ज़िंदगी क्षण क्षण गुजर जाती है,
नष्ट शरीर हुआ होगा,
वरना गांधी और गोडसे कहाँ मरते हैं?
शरीर के मर जाने से मन विचलित है,
व्याकुल मन मनोरंजन के लिए कुछ भी करेगा,
क्योंकि मृत्यु से ज़्यादा भय उसे,
मृत्युंजय बन जाने से लगता है,
आख़िर बुद्धि काम आती है,
जीवन के गुणगान गाती है,
संगीत में संवाद भी लयात्मक होता है,
संगीत सर्वत्र है,
आनंद की तरह,
पर मन यह कहाँ मानता है?

तू ज़िंदा है! (Parody)

तू ज़िंदा है, तो पहले ख़ुद को तू स्वीकार कर,
ज़िंदगी की जीत होगी, पहले ख़ुद से तो प्यार कर,
अगर कहीं है स्वर्ग, इस बात से इंकार कर,
है अगर ज़िद्द तो जन्नत का निर्माण कर!

ग़म-सितम के उन चार दिनों का आज तू बहिष्कार कर,
हज़ार दिन गुजर चुके, अब और ना तू इंतज़ार कर,
आज ही होगी इस चमन में बाहर,
रचकर कुछ बनकर तू ख़ुद से दीदार कर!

पहले कारवाँ की मंज़िलों का फ़ैसला तो कर,
हर हवा या लहर की तू परवाह ना कर,
एक कदम तू आज चल, एक कदम और कल,
मंज़िलों को छोड़कर आगे सफ़र की तैयारी तू कर!

देख स्वराज मिल चुका, ख़ुद का तू अभिषेक कर,
हर भेष धरकर आये जीवन तेरे द्वार पर,
धर्म-अधर्म छोड़कर, जात-पात तोड़कर,
संविधान को तू स्वीकार कर!

साहित्य, भूगोल, अर्थ के ज्ञान से आज तू शृंगार कर,
देख विज्ञान बढ़ रहा वक्त की पुकार पर,
ज़रूरतों को जानकर, बाज़ार की बुनियाद तू तैयार कर,
बहुत हुई उलझने, अब जीवन का तू चुनाव कर!

लोकतंत्र आज है, इस सच का तू एतबार तो कर,
हक़ का पत्र लेकर तू अब ना और माँगकर,
यह लोक, यह तंत्र तेरा है,
पहले इसकी कल्पना तो कर!

घड़ी चाहिए या समय?

एक घड़ी ही है,
जो अनवरत चलती जाती है,
जब तक बैटरी निपट ना जाये!
समय फिर भी नहीं रुकता!

वह दूसरी घड़ी में चलने लगता है,
जब घड़ी दस बजकर दस मिनट,
बजते ही खिलखिलाती है,
मैं भी उसे देखकर हँस पड़ता हूँ!

जीवन बीतता हुआ यह समय ही तो है,
जहां मुस्कुराने के मौक़े कम ही मिल पाते हैं,
कारण की अनुपलब्धि कम,
और अभावों का बोझ ही बड़ा भारी है!

जानता हूँ कि मर जाना है,
एक दिन, शरीर से परे चले जाना है, फिर?
फिर, क्यों इस नश्वर शरीर की इतनी चिंता करता हूँ?
जब मेरा मन जानता है कि मैं अमर हूँ!

ब्रह्म हूँ मैं,
पर मैं अकेला ब्रह्म तो नहीं,
तत् त्वम् असि,
मैं भी आप जैसा ही तो हूँ!

फिर क्यों मुस्कुराने की ज़रूरत नहीं जान पड़ती?
हर दिन घड़ी भी दो बार इज्जत से हंसती है,
विज्ञापनों और तस्वीरों में हर घड़ी,
हर घड़ी विहंसती है!

क्यों विज्ञापनों वाली शक्ल बनाने के चक्कर में…?
क्यों हम अपनी अभिव्यक्ति का शृंगार करते हैं?
क्यों खुलकर हम रो नहीं सकते?
क्यों हंसने से पहले हम दो बार सोचते हैं?
क्यों हम गालियाँ नहीं दे सकते?
क्यों अभिव्यक्ति के शृंगार को संस्कार से तौलते हैं?
क्यों अपने सौंदर्य को छिपाकर हम अपना मेकअप दिखाते हैं?
क्यों धर्म के ड्रामा को सभ्यता की पहचान समझते हैं?
क्यों भगवान को हम कहीं और तलाशते हैं?
क्यों हर समय, हर स्थान पर हम ख़ुद का मंदिर नहीं बनाते?
क्यों धारण करने की जगह धर्म की राजनीति का नाजायज़ मज़ा मार रहे हैं?

क्यों घड़ी से बिफ़क्र समय की तरह हम ख़ुद के लिए, ख़ुद की ख़ातिर, ख़ुद से ईमानदार नहीं हो सकते?
चुनाव हमारा है - घड़ी चाहिए या समय?

आईने में क़ैद आनंद!

इक दिन आईना देख,
मैं भड़क उठा,
कहने लगा,
सामने जो व्यक्ति है,
जाहिल है, 
देखो तो,
कितना घिनौना दिखता है?

मैं उस आईने पर,
कालिख मल आया,
काली सी सूरत,
वह जहालत,
अब दिखती नहीं,
अब पूरा नजारा ही काला है,
क्या मैं गोरा हो गया?

यह सवाल बिना पूछे ही,
मैं स्कूल चला गया,
वहाँ मेरा परिचय हुआ,
एक नये आईने से,
उस दर्पण में झांककर देखा,
पद, पैसा और प्रतिष्ठा दिखी,
साहब मिले, मिलकर क्या ख़ुशी हुई?

यह सवाल कभी उठा ही नहीं,
जवानी कॉलेज जा पहुँची,
क्यों? पता भी नहीं,
सबने कहा विकास करो,
आत्मनिर्भर बनो,
कुछ नहीं तो एक नौकरी ही कर लो,
जीवन क्या इतने से ही समृद्ध नहीं?

समृद्धि की कोई एक परिभाषा तक नहीं,
कभी सुख है, तो कभी दुख,
रोता, सोता, जागता, हँसता,
हर दिन आईने से हंसकर मिलता,
उसे अब कोई शिकायत भी नहीं,
पर मायूसी झांकती है,
प्रतिबिंब में क्या जीवन नहीं?

आईना ही है, सत्य तो नहीं,
फिर मैंने अपनी शक्ल कहीं देखी भी नहीं,
विज्ञान का वरदान आईना है,
पर दर्शन की कोई विधि नहीं,
ना सुख का समानार्थी, 
ना दुख पर्यायवाची,
आनंद अभी यहाँ नहीं, तो कहीं नहीं!

जीत, हार और जीवन

जीत जाऊँगा मैं,
ज़रूरी तो नहीं,
हार ही जाऊँगा,
तो क्या बदल जाएगा?
वैसे भी जीतना क्या ज़रूरी है?

अगर मेरे जीतने से,
कोई हार गया तो?
तो क्या फ़ायदा?
फ़ायदा नफ़ा नुक़सान,
क्या अर्थ बस यहीं है?

अर्थशास्त्र में अर्थ,
“अर्थ” से भी बड़ा है,
हिन्दी वाला भी, 
अंग्रेज़ी से भी,
क्या अर्थ यहाँ दर्शन नहीं?

मेरा तो सही या ग़लत,
भी होना ज़रूरी नहीं,
जीवन के पक्ष में जो भारी,
वही तो सही है,
इसमें भ्रम कैसा? कैसा संशय?

जीवन अगर संघर्ष होता,
तो कुछ बात और होती,
समय और स्थान बस,
कुछ समय, कुछ जगह,
क्या इतना ही हमारा अस्तित्व नहीं?

फिर कैसी लड़ाई?
कैसा संघर्ष?
जिस समय, स्थान पर,
हम जीवन के साथ बस पाये,
क्या बस उतनी ही जीत हमारी नहीं?

लोकतंत्र की एक परिभाषा, यह भी!

लोग मर जाते हैं,
उनका एक काम है मरना,
मर जाने से शरीर मरता है,
मन में तो गांधी और गोडसे,
दोनों ही ज़िंदा बच जाते हैं!
लोगों के मर जाने पर,
अफ़सोस क्यों जताना?
हमें तो उनका जीवन बताना चाहिए,
उनकी कहानी सुननी-सुनानी चाहिए,
आख़िर ये कहानियाँ ही तो स्वराज के प्रमाण हैं,
साहित्य नहीं तो बताओ तो जीवन और कहाँ बसता है?
लोग और कहाँ अमर हो सकते हैं?
जन्नत का विज्ञान से क्या वास्ता?
मोक्ष तो भावनाओं में पलता है,
स्वर्ग कल्पनाओं में फलता- फूलता है,
जीवन के पक्ष में जो अवधारणा है,
वही तो लोकतंत्र कहलाती है।

जीवन और लोकतंत्र

जीवन अगर कोई किताब होती,

तो पढ़ लेता मैं!

जीवन अगर रणभूमि होती,

तो लड़ लेता मैं!

जीवन अगर कोई दर्द भी होता,

तो सह लेता मैं!

पढ़कर देखा,

लड़कर भी,

सह भी लेता हूँ!

पर जब क़रीब से देखा,

जीवन तो एक कल्पना निकली!

यहाँ तो कल्पना करने को भी पैसे लगते हैं,

सपनों को देख लेना ही काफ़ी नहीं,

उनकी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है।

इतनी कमाई अपनी तो नहीं।

जहां ज़रूरतों की लड़ाई में,

जीवन बिखरता है,

वहाँ इंसानों की हैसियत ही क्या?


 

जीवन तो गली का कुत्ता भी,

जैसे-तैसे गुज़ार लेता है,

बिना किसी धर्म के,

बिना ईश्वर के,

बिना किसी लोक या तंत्र के,

बिना कमाई के,

एक रुपया बिन कमाए, बिन खर्चे,

गुजर जाता है।

वो ना राम को जानता है,

ना रहीम को,

शब्द के बिना,

भी जीवन है।

निशब्द क्या कल्पना संभव नहीं?


 

मेरी गली का कुत्ता,

दिल्ली नहीं जानता,

विधायक हो या अधिकारी,

या हो कोई भिखारी,

हर किसी से उम्मीद लगाये बैठा है।

पद, पैसा, प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर,

वह हर उस शख़्स को दौड़ता है,

जिसने उस पर पत्थर फेंका।

निस्संदेह प्रेम की परिभाषा वह नहीं जानता,

फिर क्यों उस बच्चे को देख दुम हिलाता है,

जो अपनी रोटी का टुकड़ा उसे देता है?

उसकी कल्पना से भी,

जीवन का मोह छलकता है,

जो आज इस देश काल में नहीं।


 

इतिहास पलटकर भी देखा मैंने,

साहित्य भी पढ़कर पाता हूँ,

हर क़िस्से-कहानी में,

जीवन का विपक्ष ही भारी क्यों?

हर घर-आँगन में,

बचपन भयभीत क्यों नज़र आता है?

अगर यही लोकतंत्र है,

तो तानाशाही में बुराई ही क्या?

कोल्हू के बैल भी थककर सो जाते हैं,

गली का कुत्ता भी,

अपने ही बिस्तर पर,

क्यों हम नींद को तरस जाते हैं?


 

जैसे भी हो,

जहां भी रहे,

काल और स्थान में सफ़र करता,

जीवन तो गुजर ही जाता है,

मौसम भी आते जाते हैं,

हर बरसात के बाद जाड़ा,

फिर बसंत, फिर गर्मी,

इस बीच संघर्ष है,

जिजीविषा है,

जीते जाने की इच्छा,

क्या काफ़ी नहीं?


 

फिर क्यों सैकड़ों लोग,

हर दिन अपनी ही जान ले रहे हैं,

ख़ुद की ख़ुशी से क्यों फाँसी लगा रहे हैं?

ना कोर्ट, ना कचहरी,

सीधा ही फ़ैसला सुना रहे हैं,

घर परिवार भी अपने सपने,

अपने ही बच्चों पर थोप रहा है,

क्या सही है? क्या ग़लत?

धर्म-अधर्म सब कुछ तो सीखा रहा है,

फिर क्यों जीवन को जीवन तरस रहा है?


 

क्यों किसान आत्महत्या कर रहे हैं?

विद्यार्थी भी अपने ही कंधों पर अपनी अर्थी उठा रहे हैं,

गृहणियाँ भी पीछे कहाँ हैं?

मज़दूरों में भी मर जाने होड़ लगी है,

अगर यही लोकतंत्र है,

तो मैं अपना बहुमूल्य मत जीवन को देता हूँ,

ना लोक को, ना तंत्र को,

अपने गली के कुत्ते को ही,

मैं अपना भाग्यविधाता चुनता हूँ।

क्योंकि मैंने देखा है,

बच्चों को,

जिसे वह देखकर,

दुम हिलाता है,

जीवन की इतनी कल्पना,

तो वह भी कर लेता है,

उसके बच्चों को मजबूरी में,

ज़हर खाते तो नहीं देखा मैंने।

मैं सोचता हूँ

मैं सोचता हूँ,

कि मरने के बाद नींद तो अच्छी आती होगी ना?

या वहाँ भी चेतना यूँ ही बेचैन भटकती जाती है?

क्या होता है मर जाना?

जीना ही क्या होता है?

अंतर ही क्या बचा है?

मुझे तो कहीं नज़र नहीं आता!


 

मैं सोचता हूँ,

कि मैं ऐसी गहरी नींद में सो जाऊँ,

जहां चैन हो, थोड़ी फ़ुर्सत भी,

अकेला होकर भी मैं अकेला ना रहूँ,

ख़ुद के साथ भी मैं अकेला कहाँ रह पाता हूँ?

अब और किसी के साथ की ज़रूरत भी ना पड़े,

कोई साथ हो ऐसा एहसास बस बना रहे!


 

किसी के साथ की ज़रूरत भी क्या है?

क्या इंसान अकेला ही पैदा नहीं हुआ?

क्या वह अकेला ही नहीं रह गया है?

किसी के साथ क्या कभी कोई रह पाया है?

किसके साथ भला वह मर पाएगा?

मैं सोचता हूँ,

कि अब सोचना हो छोड़ दूँ!

कृष्ण-अर्जुन

कुरुक्षेत्र में अर्जुन निहत्था आया,

गांडीव वह घर भूल आया,

कृष्ण ने कहा चल बाण उठा,

निशाना लगा,

धर्म कहता है,

अपने परायों में भेद ना कर,

तू जा कुरुक्षेत्र में प्रियजनों का भी संघार कर,

यही धर्म है तेरा,

जा लड़ मर,

तू क्षत्रिय है, भूल मत!

वह शूद्र है,

जो धर्म नहीं निभाता,

नरक जाता है,

देख महाभारत की रणभूमि में,

तू धर्म की रक्षा कर,

जीत से अपना शृंगार कर,

योद्धा है तू मत भूल!

गीता का सार है,

तू कर्म कर,

फल की ना तू चिंता कर,

ना ही उस पर कोई चिंतन कर,

सामने जो है,

वही तेरा दुश्मन है,

तू जा उसका वध कर।


 

अफ़सोस! इस भारत में अर्जुन निहत्था आया,

उसे क्या पता था,

वह गीता या द्रौपदी की नहीं,

सीता की रक्षा करनी है,

राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं,

बाक़ी सब नामर्द हैं,

फिर क्यों राम राज्य में,

सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी?

अब राम तो आए नहीं,

आग से सीता को बचाने,

अर्जुन क्या उखाड़ लेता,

तो उसने बाबरी मस्जिद गिरा डाली,

सीता की परीक्षा तो महाभारत से पहले ही हो चुकी थी,

द्रौपदी को भी कौन बचा पाया?

गीता कैसी है?

कौन पढ़ता है?

धर्म क्या है?

कौन जानता है?

राम के राज्य में जब सीता सुरक्षित नहीं थी,

इस भारत में कौन बचेगा?


 

ना गीता के सार से,

ना कृष्ण की पुकार से,

ना कौरवों की ललकार से,

ना ही कुरुक्षेत्र के हाहाकर से,

अर्जुन मजबूर है,

वह गांडीव ही घर भूल आया,

कैसे लड़ेगा?

कैसे अब वह धर्म निभाएगा?

क्या वह अपनी ही रक्षा कर पाएगा?

कृष्ण को समझ पाये,

इसके लायक़ वह है भी कहाँ?

द्रोणाचार्य को अंगूठा पसंद है,

भीष्म कैसे पितामह हैं?

भाइयों की लड़ाई में पक्षपात करते हैं,

कैसे मर्यादा बची है?

जिसकी रक्षा अब संभव है?

जब हर घर बेटियों से पहले,

तो बेटों की विदाई हो रही है,

जीत गया तो ठीक,

वरना कुंती का क्या?

सुना है कर्ण भी उसी की संतान है।

अब बेचारे कृष्ण!

किसे उपदेश देंगे?

देकर भी क्या उखाड़ लेंगे?

अर्जुन तो गांडीव ही घर भूल आया।

Push A Little

Usually things fall to grounds,

The fallen becomes nothing but dust,

To preserve them, you need to

Push a little.

 

Usually the appearances fades away,

Beauty die with ages,

To maintain the charm, makeup every moment,

Push a little harder.

 

Usually the conscience bows down,

Lean joins the thunder,

To preserve the honour, fight every moment,

Push a little with vigour.

 

Usually the sun sets,

The hidden recedes from the horizon,

To keep the flame lit, light a lamp,

Push a little with fire.

 

Usually relationships break,

They get lost in broken times,

To keep love, show some affection,

Push a little with care.

 

The best support you have is you,

This is a fight with Gods,

Keep your morales high and remember

to taste your victory yourself.

थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है

अमूमन चीज़ें गिर जाती हैं,

गिर धरत्ती पर मिट जाती हैं,

उपर थामे रखने को,

हर पल ज़ोर लगाना पड़ता है

 

अमूमन सूरत ढल जाती है,

ढल उमर संग मर जाती है,

सुंदरता कायम रखने को,

हर पल सृंगर रचाना पड़ता है

 थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है।

 

अमूमन जमीर झुक जाता है,

झुक गर्दिश में मिल जाता है,

ईमान बचाए रखने को,

हर पल संघर्ष निभाना पड़ता है

थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है।

 

अमूमन सूरज छिप जाता है,

छिप क्षितिज से रीझ जाता है,

ज्योत जलाए रखने को,

हर घर दीप जलना पड़ता है

थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है।

 

अमूमन रिश्ते टूट जाते हैं,

टूट वक़्त में खो जाते हैं,

प्रीत बचाए रखने को,

हर पल स्नेह जताना पड़ता है

थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है।

 

खुद को सम्बल देना होगा,

खुद को उपर रखना होगा,

खुद से है खुदा की लड़ाई,

खुद ही जीत का रस चखना होगा।

I am Time

I think, when life will be on waning ends,

When death will try to lure me,

What those words would be,

That summarises this life-story.

 

What will be the story?

Immaculate childhood or a thoughtless youth,

Or a dejected, sad, pathetic life,

Will death be an end or a new beginning?

 

When old age shall come,

When God of death would be eager to meet,

Then will I be sitting terrified in a dark room,

Alone and Praying for mercy?

 

Or will that meeting be grateful,

Will I say goodbye to this world smiling?

Would the world pray for my life?

Will you ask in your prayers, two more moments for me.

 

At the threshold of youth, now,

As much as I have understood life,

It is only time threaded by fleeting moments,

Moments after moments passing before my eyes.

I wish to synchronise my rhythm with its pace,

Yet Time remains untouched by my concerns,

I keep on chasing it, worried and bewildered,

She pays no heed to my relentless pursuit.

 

Who knows what fuels this pace,

The fuel that never wears out ever,

When tired I sit to rest for a while,

She teases me and moves faster.

 

Now I have decided,

I would no longer care for this race,

Because I am now aware of my defeat,

As no one known so far has ever won.

 

Though still I would be the one following,

But now there is no hurry,

My eyes are now fixated on her beauty,

No more strife, she darling, and I be lover.

 

Now who cares for the world,

I alone am the world now,

I am now, now I am time,

As an expression of time.

सूरज, गुलाब और हवा

यूँ डुबकर किसी दिन,

ना हम सूरज कहलाएँगे,

हम फिर उगकर आयेंगे,

और तब सूरज कहलाएँगे।

 

यूँ मुरझाकर इक रोज़,

ना हम गुलाब कहलाएँगे,

हम जब जब ख़ुशबू फैलाएँगे,

हम तब तब गुलाब कहलाएँगे।

 

यूँ बहते हुए हर पल भी,

ना हम हवा कहलाएँगे,

हम जब जीवन दे पायेंगे,

हम तब हवा कहलाएँगे।

 

एक दिन उगेगा सूरज भी,

उस दिन गुलाब भी खिलेगा,

और हवा तब ख़ुशबू से भर देगी जीवन,

वह दिन कभी तो आयेगा।

 

तब तक,

चल हवा के साथ चल तू,

ख़ुशबुएँ ले साथ चल तू,

उठ गगन में तू घटा बन,

बरस धरा पर तू बन जीवन।

वक़्त हूँ मैं

सोचता हूँ जिंदगी की जब शाम आएगी,

मौत जब द्वार खड़े पास बुलाएग,

तो वे कौन शब्द होंगे जुबां पर,

जो इस कहानी के सारांश होंगे।

 

क्या होगी कहानी ?

बेबाक बचपन, अल्हड़ जवानी,

या सहमा जीवन, निशब्द ज़िंदगानी,

मौत अंत या नयी सुरुवात होगी ?

 

अधेड़ आयु जब आएगी,

और यम आकुल होगा मिलन को,

तो क्या किसी अंधेरे कमरे में,

असहाय पड़ा उससे मिनत्तें करूंगा। 

 

या सुखमय होगा मिलन,

दुनिया हँसते हँसते विदा करेगी,

या कोसेगी मेरे जीवन को,

या मांगेगी दुआ में, मेरे लिए दो पल।

 

अभी तो जवानी की दहलिज़ ही नापी है,

पर जितना जीवन समझ पाया हूँ,

झणभंगुर पलों से पिरोया वक़्त है केवल,

नजरों के सामने से गुजरता वक़्त।

 

चाहता हूँ उसकी गति से कदमताल मिला लूँ,

पर वह मदमस्त आगे – आगे चलती है,

मैं चिंतित हतप्रभ पीछा करता रहता हूँ,

वह अक्सर आगे मैं पीछे - पीछे।

 

जाने क्या खा कर चलती है,

न थकती है, न रुकती है,

मैं जब थक कर बैठ जाता हूँ,

वो ठेंगा दिखा और तेज़ चलती है। 

 

अब मैंने निश्चय किया है,

परवाह नहीं मुझे इस दौड़ की,

जान चुका हूँ मैं, तय है हार मेरी,

क्यूंकि कोई जीत न पाया है।

 

अब भी मैं ही पीछा करूंगा,

पर अब मुझे नहीं कोई जल्दी,

उसकी लचकती कमर पर नज़र अब मेरी,

अब कोई मुटभेड़ नहीं, वह प्रियसी, मैं प्रेमी।

 

दुनिया की फिक्र कहाँ अब,

अब बस मैं हूँ, मैं हूँ दुनिया,

आज हूँ मैं, अब वक़्त हूँ मैं,

और इक महज अभिव्यक्ति हूँ मैं।

सॉफ्टवेयर इंजीनियर का इस्तीफा

एक ऑफिस का फ्लोर, फ्लोर पर कंप्यूटर,

कई लोग उसके सामने बैठे हैं,

कोशिश है चल जाए,

आपने-आपने गृहस्ती का कैलकुलेटर।

 

बैठे हैं सब काम कर रहे हैं,

बैठा हूं मैं भी,

देखता हूं मशीन,

और मशीनों के इशारे पर नाचता इंसान।

 

अरसे से सुबह की धूप नहीं देखी,

ओस से भिंगे घास पर दौड़ा नहीं,

दिन गुजर गए जब रात साफ खामोश हो,

और खुले आसमान में चांद और बादल की शरारत नहीं देखी।

 

नेचर के नज़ारे अब वॉलपेपर बन गए हैं,

एक छोटे से डब्बे में दुनिया सिमट गई है,

दोस्ती और रिश्ते भी अब वर्चुअल बन गए हैं,

फेसबुक, ट्विटर, इंस्टा पर जवानी से बचपन फंस गई है।

 

लोग कहते हैं, गप मारना औरतों का काम है,

मशीनें आज ये काम भी उनसे बेहतर कर रही हैं,

कहते हैं उनके पेट में बातें नहीं पचती,

मशीनों का हाजमा भी कुछ बेहतर नहीं है।

 

इस मशीनी दुनिया को देख कर,

एक बार तो रोया होगा खुदा भी,

चिल्लाया होगा जी ले जो दो पल दिए हैं,

और जवाब आया होगा -

"इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं"।।

Sun, Rose and Wind

Setting on horizons,

We won’t be sun,

When we rise back again,

Then, shall we be called Sun.

 

Withered like this one day,

Nor shall we be called roses,

Whenever we will spread fragrance,

Then, shall we be called roses.

 

Blowing like this every moment,

Nor shall we be called wind,

When we will give life,

Then, shall we be called wind.

 

One day the sun will rise too,

Rose will also bloom that day,

And winds will fill life with fragrance,

That day will come soon.

 

Until then,

Go with the winds,

Taking fragrance up to skies,

Become clouds there,

And then rain as life on earth.

क़िस्मत

क़िस्मत या तो किसी तानाशाह की तरह होती है,

जो बेवजह ही हुकुम चला रहा है,

या किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह,

जो अपने पिता से उड़ने की ज़िद्द कर रहा है,

या किसी प्रेमिका की तरह,

जो चाँद-तारे माँग रही है।

 

अरे! मानना ही है तो तुम क़िस्मत को ऐसे मानो,

की क़िस्मत तुम्हारी ग़ुलाम है,

पुश्तैनी नौकर है तुम्हारी, 

या तुम्हारी ही बंधुआ मज़दूर है,

या चिराग़ से निकले वो जिन्न है,

जो तुम्हारी माँग बस पूरी करने के इंतज़ार में जाने कब से बैठा है!

 

अपनी क़िस्मत तो तुम ऐसे लिखना,

जैसे कोई कवि रवि की कल्पना लिख रहा हो,

या कोई लेखक ईमानदारी से शब्द लिख रहा हो,

या कोई वैज्ञानिक अपना अनुमान लिख रहा हो,

या कोई शोधार्थी अपने तर्कों के लिए प्रमाण लिख रहा हो,

या कोई शायर ग़ज़ल लिख रहा हो,

या कोई प्रेमी अपना पहला प्रेम पत्र लिख रहा हो!

 

याद रखना तुम,

 

क़िस्मत से कहीं तुम धन-दौलत ना माँग लेना,

गलती से भी उसे भगवान मत बता देना,

क़िस्मत के भरोसे अपनी फ़रियाद लिए, 

कहीं तुम धर्मालय मत घुस जाना,

धर्म मुक्ति का रास्ता है, 

डरकर कहीं तुम किसी पंथ के ग़ुलाम मत बन जाना,

इस चक्कर में कहीं तुम ज्योतिष के पास मत चले जाना,

या अपने ही घरों में कोई नाजायज़ अपेक्षा मत पाल लेना।

 

मैंने देखा जिनके घर-बार बड़े होते हैं,

जिनके मकान आलीशान होते हैं,

जो सर्वगुण संपन्न और सुख-सुविधा में लिप्त होते हैं,

उनके घरों में अजनबियों को छोड़ो अपनों के लिए भी जगह नहीं होती,

वे तो आदमी को भी इंसान नहीं समझते,

अपने ही बच्चों से प्यार नहीं करते,

उन्हें भी वे संसाधन या किसी औज़ार की तरह देखते हैं,

बुढ़ापे का सहारा मान लेते हैं,

या अपनी मुक्ति का रास्ता उनकी सफलता में ढूँढने लगते हैं,

कुछ तो ऐसे भी होते हैं, जो सफलता तक को नहीं समझते,

पद, प्रतिष्ठा और पैसे में ही अपने बच्चों की सफलता तलाश लेते हैं,

भले वो पैसे चोरी का हो, वो प्रतिष्ठा झूठी हो और वो पद पर बेईमान बैठे हों!

 

मशहूर होना, सफलता की निशानी नहीं है,

सफलता की परिभाषा तो सरल है,

जब जिस वक़्त जो काम करने का मन करे,

उस वक़्त वो काम करने की आज़ादी और सुविधा हो,

ख़ुद की आज़ादी में सफलता है, 

जीवन की जीत में सफलता है,

ख़ुद की ग़ुलामी तो राजा से भिखारी सभी कर रहे हैं।

 

समझ सको तो यह भी समझना,

अगर आदमी, आदमी के काम नहीं आता,

तो वो इंसान किस काम का होता है,

अपनी तक़दीर तो इंसान लिखते हैं,

क़िस्मत के भरोसे तो कई हैवान बैठे हैं!

बेहतर होगा

जिस समाज में

एक,

विद्यार्थी, विद्या से,

नौकर, अपनी नौकरी से,

मरीज़, डॉक्टर से,

शरीफ, पुलिस से,

बेक़सूर, अदालत से,

वोटर, नेता से,

ईमानदार, पूरे सिस्टम से,

डरता है।

 

जहां हर कोई भगवान से डरता हो,

और भगवान अपने भक्तों से,

 

वहाँ अच्छे दिन कैसे आ गये?

अमृत काल आया है, 

किसने बता दिया?

और फिर भी आपको लगता है,

सब ठीक है,

तो ये सवाल आप ख़ुद से ही पूछें तो,

बेहतर होगा॥

 

फिर क्यों हम अपना ही जीवन उलझाए चले जा रहे हैं?

नशा

वो काम अधूरा रह गया,

जिसे पूरा करने का वक़्त नहीं मिला।

 

वो काम बेहद ज़रूरी होगा,

क्योंकि समय से ज़्यादा, 

उसे साँसों की ज़रूरत थी।

 

वो काम था, जिसमें मन कभी नहीं लगता,

उसका नाम मात्र ही काफ़ी है,

मन-तन-बदन में दर्द उठाने को,

फिर वो काम क्यों ज़रूरी था?

 

वो काम हर रोज़ करना था,

हर रोज़ ज़मीर धिक्कारता था,

जब भी मैं उस काम को टालता था,

कल ही तो पक्का वादा किया था,

जाने कब से वो “आज” नहीं आया,

 

अफ़सोस, आज भी वो अधूरा रह गया,

आज भी ‘कल से पक्का’ का वादा है॥

 

(ध्यान रखना हर नशेड़ी एक ना एक दिन अपना नशा यहीं छोड़ जाता है।)

तराज़ू

बिक जाना तो लाज़मी है,

इस मुकम्मल जहान में,

यहाँ तो संतों और फ़क़ीरों कि,

भी नीलामी होती है,

ख़याल बस इतना रहे,

अपनी क़ीमत को,

अपने जीवन की खुमारी,

और ख़ुशियों की गठरी से,

किसी तराज़ू पर तौल लें,

अपनी क़ीमत को पहचान,

पूर्ण तसल्ली के बाद ही,

अपनी बोली का पैग़ाम दें।

इक फ़लसफ़ा

सबको “भगवान” की तलाश थी,

सब अपने-अपने सफ़र पर निकले।

 

कुछ को मिले,

वे ज्ञान बाँट रहे हैं।

 

कुछ को आभास हुआ,

वे शांति से अपना काम कर रहे हैं।

 

बाक़ी को भ्रम-मात्र है,

वे बस कर्मकांड निभा रहे हैं।

 

सत्य को छिपा कर,

सब अपना-अपना सच बता रहे हैं।

 

ख़ैर,

 

जो भी हो धर्म,

हर भक्त घमंड में चूर है,

 

अपने ही बच्चे से नहीं पूछता -

“बता मेरे बच्चे! तेरा धर्म क्या है?”

 

क्योंकि, कभी अपने ही बच्चे को,

नहीं बताया हर धर्म में, ख़ास क्या है?

 

क़िस्से और कहानियाँ ही तो हैं,

किसी ने पड़ोसी के क़िस्से,

भी अपने बच्चों को नहीं सुनाये।

 

सुना तो दो,

शिद्दत से वो कहानियाँ,

हर मज़हब जनाब,

एक हो जाएगा।

सवाल ही तो है….

कितना सरल है ये जताना कि - “मेरे बच्चे! मैं तुमसे प्यार करता हूँ”?

फिर भी ना जाने क्यों हम अपने ही बच्चे को ही सताये चले जा रहे हैं? 

 

कितना आसान है ये समझना कि हमें “सच” का साथ देना चाहिए? 

फिर क्यों हम झुठ का साथ निभाये चले जा रहे हैं?

 

कितना मुश्किल है ये देखना की “बेईमानी और चोरी” से कभी किसी का भला नहीं हुआ?

फिर क्यों हम ख़ुद का भला नजरअंदाज़ किए चले जा रहे हैं?

 

कितना कठिन है ये बताना कि सिर्फ़ “ईमानदारी” ही तो अपने बच्चे को सिखाना था?

फिर क्यों हम उसे नक़ल उतारना सीखा रहे हैं?

 

कितना ज़रूरी है ये जान लेना कि “ईश्वर सिर्फ़ उनका साथ देते हैं जो ख़ुद का साथ ईमानदारी से देते हैं”,

फिर भी हम ना जाने कितने ढोंग रचाये चले जा रहे हैं।

 

बहुत आसान है दोस्तों इस दुनिया में सुकून से रहना।

जीवन गणित

सुना है अक्सर लोगों को कहते,

कभी तो वक़्त बुरा है,

कभी क़िस्मत बुरी है,

कभी दुनिया बुरी है,

तो कभी नसीब खोटा है।

 

क्यों वे लोग नहीं कहते -

बुरा ही सही, ये वक़्त मेरा है,

फूटी ही सही, क़िस्मत ये मेरी है,

छोटी ही सही, ये दुनिया भी मेरी है,

नसीब के ये क़िस्से मैंने ही लिखें हैं।

 

अपनी ही दुनिया को हम अपनाना भूल गये हैं।

ख़ुद को क़बूल कर पायें, ये हिम्मत कहाँ है?

 

दुनिया परायी तभी तक है,

जब तक इसे अपना नहीं मान लेते।

 

सीधा सा गणित है,

बस मानना ही तो है।

कहानी

क़िस्से बदल जाते हैं,

कहानियाँ नहीं बदलती।

 

किरदार बदल जाते हैं,

उनकी फ़ितरत नहीं बदलती।

 

हालात बदल जाते हैं,

परिस्थितियाँ नहीं बदलती।

 

हर साल मंजर बदल जाते हैं,

उनकी ख़ुशबू नहीं बदलती।

 

जीवन की जंग बदल जाती है,

उस पर जीत के फ़साने नहीं बदलते।

 

और जो बदल जाते हैं,

उन पर कहानियाँ नहीं बनती।

वंशवाद

हिंदू का बच्चा हिंदू ही होगा,

कहाँ लिखा है?

मुसलमान का बच्चा मुस्लिम ही होगा,

किसने हमें बताया है?

 

तू जा अपने बच्चों को सीखा,

हिंदू ग्रंथ में क्या लिखा है?

इस्लाम क्या सिखाता है?

धर्म की परिभाषा तो बता,

 

फिर देखेंगे हम सब,

एक नयी पीढ़ी,

इस दुनिया को कैसे,

खूबसूरत बनाती है॥