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VideoEssay

मनुष्य क्या है?


क्या आपने कभी सोचा है कि मनुष्य होने के नाते हम क्या क्या हो सकते हैं? आज के इस वीडियो निबंध में, हम मनुष्य के विविध आयामों की खोज करेंगे।

प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू का मानना था कि मनुष्य स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है। फिर उन्होंने अपनी किताब "पॉलिटिक्स" में लिखा कि समाज एक प्राकृतिक रचना है और मनुष्य इसका एक राजनीतिक प्राणी। उनके अनुसार, बिना समाज के मनुष्य का अस्तित्व असंभव है क्योंकि उसकी सामाजिक प्रवृत्ति ही उसके अस्तित्व को ना जाने कितने प्राकृतिक ख़तरों से बचाती आयी है। सामान्य अनुभव से भी हम इन तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं। शारीरिक स्तर पर मनुष्य का वंश जीवन की सबसे कमजोर कड़ी प्रतीत होता है। बड़ी नाज़ुक सी जान लिये आज अपने ही बनाये जंगलों में मनुष्य डरा-सहमा भटक रहा है। जहां जंगलों से लाकर उसने जानवरों को पिंजड़ों में सुरक्षित रखने के क़ानून तो बना दिए हैं। पर, ख़ुद न्याय की अर्ज़ी लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा रहा है। न्यायपालिका की ऐसी दुर्दशा देखकर, सोचिए! अरस्तू न्याय की ऐसी दशा देखते तो क्या कहते? शायद यह कि “आधुनिक मनुष्य आज एक राजनीतिक जानवर बन चुका है, जहां लोकतंत्र भी जंगल के क़ानून पर चल रहा है — Survival of the fittest, गला काट प्रतियोगिताओं के दम पर चलता यह कैसा लोकतंत्र है?”

क्या पता जिन्हें पढ़ने-समझने में आज हमारे पसीने छूट जाते हैं, वे ख़ुद उन सवालों का जवाब दे भी पाते या नहीं, जिन सवालों को कभी उन्होंने ही उठाया था। ख़ैर, बहुमत के इस लोकतांत्रिक बाज़ार में इतना तो तय है कि मनुष्य विशेषणों का एक खजाना है। यह खजाना सिर्फ़ इन दो-चार नवरत्नों से कहीं बड़ा है। आइये, आगे देखते हैं कि ज्ञान-विज्ञान ने मनुष्यों को और कौन-कौन से विशेषण दिये हैं?

वैज्ञानिकों ने हमें Homo Sapiens कहकर पुकारा और प्रमाणों के साथ बताया कि हमने लगभग 300,000 साल पहले इस धरती पर अपनी जगह बनाई। और ऐसी बनायी की हम ही मालिक बन बैठे। अर्थ के इस बंदरबाँट ने मानवीय इतिहास को ना जाने कैसे कैसे दिन दिखलाए? इस आधुनिक लोकतंत्र ने दुनिया को ना जाने कितने टुकड़ों में बाँट दिया है। कागज नहीं तो डंकी मारनी पड़ती है। ना जाने ऐसे और कितने कारणों से 19वीं सदी के पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों ने मनुष्य को 'आर्थिक प्राणी' की उपाधि दे डाली, जिसका प्रमुख काम ही अर्थ की खोज और उसका सृजन है। अब तो हालात कुछ ऐसे हैं कि अर्थ की तलाश छोड़कर, यह प्राणी मुद्रण की महाभारत में तर्कों के तीर चला रहा है।

मनुष्यों में इस प्रवृत्ति की पहचान बड़ी पुरानी है, प्राचीन युग में ही पाश्चात्य दार्शनिकों ने मनुष्य को तार्किक प्राणी घोषित कर दिया था। अपने तर्कों की शक्ति से ही मनुष्य ने समाज, राष्ट्र, और सीमाएँ बनाईं हैं। तर्क के इस राजनीतिक दंगल में उसे चुल्लू भर पानी भी ख़रीदकर मरना पड़ता है। क्योंकि, मनुष्य न केवल तार्किक है बल्कि भावनात्मक प्राणी भी है। तर्कों और भावनाओं की बाढ़ में और ज्ञान युग की आड़ में ना जाने हमारी अज्ञानता और विश्वास का कैसा-कैसा व्यापार चल रहा है?

मगर, हमारी भावनाएं, हमारी आस्था, और अर्थ पर तार्किक भरोसे ने ही हमें विज्ञान, कला और साहित्य में रचने की स्वतंत्रता भी दी है, और प्रेरणा भी। हमारी कल्पना और रचनात्मकता की उड़ान इतनी ऊँची है कि चाहे तो हमें स्वर्ग तक पहुँचा भी सकती है, या नर्क के दर्शन भी साक्षात यहीं करवा सकती है। जहां मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य को भावनात्मक प्राणी की उपाधि दी, वहीं साहित्य ने तो हद ही कर दी। उपमा और अलंकार से भरे साहित्य में शायद ही ऐसा कोई प्राणी होगा, जिससे मनुष्य की तुलना नहीं हुई होगी। यहाँ तक कि कीड़े-मकौड़ों से लेकर मच्छर-मक्खी तक को नहीं छोड़ा। कहीं आदमी ही कुत्ता बन जाता है, तो कहीं गधा भी। कहीं गाय में ममता है, तो कहीं शेर जैसे साहस का प्रत्यक्ष भी मनुष्य ही बनता है। गीदड़ जैसे विशेषणों से ना सिर्फ़ साहित्यकारों ने बल्कि इतिहासकारों ने भी मनुष्य की तुलना की है।

वीडियो निबंधों की इस श्रृंखला में हम मनुष्य, अस्तित्व, ज्ञान, विज्ञान, अर्थ और नीतिशास्त्र के विभिन्न पहलुओं पर चिंतन मनन करेंगे। ज्ञानाकर्षण के इस मंच पर मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आपकी इन दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक जिज्ञासा का सूत्रधार, आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ।   

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.