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VideoEssay

अंडा पहले आया या मुर्गी?
यह कोई पहेली नहीं है। ना ही यह ऐसा कोई सवाल जिसे जवाब की तलाश हो। ना अंडा पहले आया ना मुर्गी, सबसे पहले यह सवाल ही आया था। किसने यह सवाल पूछा था?

कोई ना कोई दार्शनिक ही रहा होगा, जिसने यह सवाल पूछा होगा। विज्ञान ने मिले प्रमाणों के आधार पर हमें बता भी दिया कि विकास के क्रम में अंडा ही पहले आया। जानते तो हम भी थे। पर हम यह भी तो जानते हैं कि जवाबों से ज्यादा सवाल जरुरी होते हैं। ऐसे सवाल हमारा साक्षात्कार उस दर्शन से करवा जाते हैं जो बड़े-बड़े दार्शनिक हमें नहीं समझा पाये। जैसे यह सवाल कि आख़िर ऐसे सवाल पूछता कौन है?

मुर्गी सवाल करती है, या अंडा?

सवाल तो मनुष्य ही कर सकता है। अभी तक हमारे पूर्वज बंदर इतने सक्षम तो नज़र नहीं आते हैं कि सवाल पूछ पायें। अगर पूछ पाते तो वे भी अपना अधिकार माँगते, उनका भी कोई नेता होता। होता भी होगा, पर अभी तक लोकतंत्र पर उन्होंने अपनी कोई दावेदारी नहीं रखी है।

इस आधार पर दूसरा तार्किक सवाल उठता है कि मनुष्य क्या है? इसकी व्याख्या करने की कोशिश इस वीडियो निबंध में की गई है। स्वागत है आपका ज्ञानाकर्षण के इस मंच पर जहां हम उन सवालों का सामना करते हैं, जो शायद हम ख़ुद को समझाना भूल गए। एक बड़ी मज़ेदार दार्शनिक अवधारणा है, संभवतः आप भी इससे परिचित होंगे। विरोधाभास की अवधारणा, अंग्रेज़ी में इसे Paradox कहते हैं। यह सवाल भी उसी विरोधाभास की कल्पना करने हमें सिखाता है, जिसे ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा पूछती आयी है। जिन विधाओं ने इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया, उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ा है। उन विधाओं में एक विधा दर्शनशास्त्र भी है। क्योंकि, बस एक यही जानता है कि इन सवालों के जवाब नहीं होते, फिर क्यों ऐसे सवाल जरुरी होते हैं।

चलिए! इस वीडियो निबंध में जानने का प्रयास करते हैं कि सवाल कहाँ से आते हैं? और क्यों इतने जरुरी होते हैं?

भारतीय सभ्यता और संस्कृति कई मायनों में समृद्ध रही है। ना सिर्फ़ यहाँ की धरती सोना उगला करती है। बल्कि हर मायनों में प्रकृति ने इस धरती पर अर्थ की बारिश की है। दुनिया भर में पाए जाने वाले हर प्रकार के मौसमों से लेकर मसालों की कोई कमी यहाँ नहीं रही है। राजस्थान की मरुभूमि से लेकर हिमालय की चोटी से होते हुए भारत माँ के पाँव पखारता समुद्र निःसंदेह एक कवि की कल्पना नहीं तो और क्या है?

पर ध्यान रहे, यहाँ जिस महिमा का गुण गान हो रहा है, वह भारत है। वही भारत जिसका सपना देश के दार्शनिकों ने देखा था। जिसे स्वामी विवेकानंद ने भी देखा, हमारे बापू ने भी, इक़बाल ने भी, और बाबा साहेब ने भी। वही सपना जिसे देखकर कभी अकबर ने नवरत्नों से अपना दरबार सजाया होगा। दीन ए इलाही की गुहार लगायी थी। वही कल्पना जिसे लेकर महान शिवाजी औरंगज़ेब से लड़ने चले थे। यहाँ कोई हिंदुस्तान नहीं है, क्योंकि यहाँ पाकिस्तान भी नहीं है। इतिहास के उस दौर में इनका अस्तित्व था भी नहीं। सरहदें बनाता भी मन है, और मिटाता भी मन ही है। भारतीय इतिहास और इसका जन जीवन राजनीति और अर्थ की आड़ में इतना तंग तबाह रहा है कि यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि सामाजिक विज्ञान से लेकर मनोविज्ञान पर ही नहीं बाक़ी विज्ञानों पर भी हमारा ध्यान अपेक्षाकृत कम ही गया है।

आप ख़ुद ही याद कर इन सवालों को ख़ुद से पूछने की कोशिश कीजिए —

पहला, किसी प्रसिद्ध भारतीय मनोवैज्ञानिक का नाम सोचिए। कोई छवि सामने आयी या Freud और Pavlov महाराज ही सपनों में नज़र आ रहे हैं। 
ख़ैर छोड़िये, दूसरी पहेली पर आते हैं। क्या आप किसी महान भारतीय समाजशास्त्री को जानते हैं? या मार्क्स और माओ ही समाजवाद आज भी हमें समझा रहे हैं।
तीसरा मुद्दा तो और भी चिंता जनक है। देश की आज़ादी को आज कितने साल हो गये? फिर भी आज देश के दार्शनिक पाठ्यक्रम में समकालीन दार्शनिकों के नाम पर गांधी के जमाने के ही लोग पढ़ाये जाते हैं। अध्यात्म के इस विश्व गुरु के घर आँगन में अरसे से किसी दार्शनिक ने किलकारी क्यों नहीं मारी? क्या आप सोच सकते हैं क्यों? कोशिश तो कीजिए। क्यों भगत सिंह को भूलकर देश की जवानी कबीर सिंह के पीछे भाग रही है?

वैसे ऐसा भी नहीं है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भारत कहीं पीछे रह गया है। फिर क्यों रोज़गार पर नौकरी भारी पड़ती नज़र आती है?

ना जाने ऐसे कितने सवालों को जब तक हम अपने अहंकार से पूछते रहेंगे, तब तक सामने सरहदें बनी रहेंगी, जानवरों से ज़्यादा ख़तरा हमें हमारे पड़ोसियों से ही बना रहेगा। इसलिए, जरुरी जान पड़ता है कि हम इन सवालों को अपने मन से पूछें। अहंकार पर पहले ही तर्कों की अज्ञानता के साथ स्मृतियों का बोझ भी है, जो व्यक्ति के फ़ैसलों को भावनाओं पर आधारित करता है। व्यक्ति की अवधारणाएँ ही तो उस समाज की स्थापना करती है, जिसमें वह ख़ुद रहता है। अद्वैत दर्शन ऐसी ही दुनिया को मिथ्या बताता है। क्योंकि जिस दिन लोगों ने अपनी अवधारणाएँ और कल्पनाएँ बदल ली, उस दिन यह दुनिया भी बदल जाती है। ना जाने इतिहास ऐसे कितने प्रमाण लिए बैठा है। इस देश का संविधान क्या हमारा सच नहीं है?

कुछ अवधारणाओं और कल्पनाओं को सामाजिक मन में विधिवत रूप से स्थापित किया जाना चाहिए। परिभाषाओं पर जब तक हमारी एक जैसी समझ नहीं बनेगी, तब तक पूर्वजों के भी भूत हमें सताते ही रहेंगे। क्योंकि भूतों का शरीर हो ना हो पर मन जरुर होता है। इस कथन से शायद ही किसी मनोवैज्ञानिक को आपत्ति रही होगी। चलिए भारत के मन को थोड़ा टटोलने की कोशिश करते हैं।

भगत सिंह ख़ुद को नास्तिक बताते हैं, और छोटी ही सही पर अपनी किताब — “Why I Am an Atheist” में उन्होंने अपनी आस्था के प्रमाण दिए हैं। आस्था बहुत बड़ी चीज है। क्योंकि मनुष्य का दिमाग़ उसे बाक़ी बंदरों से अलग नहीं करता है, उसकी चेतना उसे अलग करती है। यह भावना भी सिर्फ़ इंसानों तक सीमित नहीं है। ऐसी भावना कुत्तों में भी देखी जा सकती है। तभी वफ़ादारी जैसे गुण उसमें देखने को मिलते हैं। क्या कुत्ता इंसान का सबसे अच्छा दोस्त नहीं होता? क्या वह हमारी घर की सुरक्षा नहीं करता?

आस्था कोई भावना नहीं है, कल्पना भी नहीं है। पिछले निबंध में हमने देखा था कि कैसे साहित्य को प्रमाण नहीं चाहिए होता। शब्द ही पर्याप्त हैं। तो फिर साहित्य की सत्यता कैसे निर्धारित होती है? क्या साहित्य झूठा होता है?

नहीं, पूरी इंसानियत में ऐसा कोई बुद्धिजीवी पैदा नहीं हुआ, जो साहित्य की सत्यता पर सवाल उठा सके। काल्पनिक किरदारों की सत्यता पर भी सवाल उठाने के जुर्म में इतिहास के ना जाने कितने पन्ने खून से रंगे हुए हैं। कितने कत्लेआम की दास्तान साहित्य लिए बैठा है। जबकि कभी कोई विज्ञान साहित्य के किरदारों या उनमें दर्ज घटनाओं की सत्यता को सिद्ध नहीं कर पाएगा। यहाँ तक कि विज्ञान के नियमों का सीधा साफ़ उल्लंघन साहित्य में नज़र आता है। ज्ञान के विकास ने इनकी सत्यता को और प्रमाण ही दिये हैं। जिन विशालकाय डायनासोरों से हमारा सामना कभी नहीं हुआ, पर्दों पर साहित्य के रास्ते ना जाने कितने चलचित्रों में ऐसी कितनी कल्पनाओं को अपनी आखों से देखते आये हैं। क्या ड्रैगन सिर्फ़ काल्पनिक हैं। अगर होते, तो यहाँ अभी आपको कैसे दिख रहे होते?

साहित्य की सत्यता का आधार ज्ञान की पहली शर्त है, जो विश्वास है। जहां आस्था के गुण का अनुभव के आधार पर विकास होता है। क्योंकि, अगर हम नहीं मानेंगे तो धरती गोल नहीं रह जाएगी। आज तो विज्ञान इतना सक्षम है कि पलक झपकते हमारा विश्वास ही नहीं हमारी सच्चाई भी बदल सकता है। कितनी देर लगेगी धरती को चिपटी होने में अगर हर मुल्क ने एक दूसरे पर एटम बम गिरा दिया तो?

विश्वास के बिना ज्ञान की संभावना ही नहीं होती है। इस बात पर भारतीय और पाश्चात्य दर्शन एकमत हैं। सत्यता और ज्ञान के बारे में हम अलग से चर्चा करेंगे। यहाँ जिस बात पर मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, वह मन है। क्योंकि विश्वास का आधार मन बनता है। दुनिया भर में लिखा हर साहित्य मन की सूक्ष्मता को समझने का माध्यम बना है। ना सिर्फ़ नायक से बल्कि खलनायक से भी हमारा मन आकर्षित होता है। कहानी का जब तक खलनायक हमारे मन को डरा नहीं पाता है, हमारी चेतना को दहला नहीं पता है, तब तक नायक को खलनायक से अलग भी हम कहाँ देख पाते हैं। देखा जाये तो नायक कोई तभी बन पाता है, जब सामने कोई खलनायक हो। हर महाभारत हमारे मन में ही तो चलती आई है।

Beautiful Mind नाम की एक मूवी है, कभी समय मिले तो जरुर देखियेगा। कलाकारों ने कितनी सरलता से मन की जटिलता को चित्रित किया है। मन की नैतिकता पर पहरा मनोविज्ञान देता आया है। पर, समाज का भी अपना एक मन होता है, जिसकी जिम्मेदारी राजनीति की होती है। और जब जब राजनीति नैतिकता की चौकीदार बनने की कोशिश करती है, तब तब सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है। नैतिकता सिखाने की जिम्मेदारी आज भी साहित्य की होनी चाहिए। जो सवाल पूछता है, वह भी मन है, जिस जवाब को हम मान बैठते हैं, वह भी मन ही निर्धारित करता आया है। इसी मन से हर दार्शनिक लड़ता है। अपने ही मन से लड़ते लड़ते युवराज सिद्धार्थ बुद्ध बन गये, भगवान तो हमने उन्हें बनाया है। उन्होंने कभी ऐसा कोई पाखंड नहीं फैलाया। उन्होंने तो मन पर जीत का रास्ता भी बताया है।

मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने बार बार इंसानियत को समझाने की कोशिश की है कि मनुष्यता की हर समस्या का समाधान आस्था है। पर, हम उनसे यह समझना भूल गए कि आस्था का केंद्र ही हर समस्या की जड़ भी है, इतिहास तो साहित्य पर भी वाद विवाद की प्रतियोगिता आयोजित करवाता आया है। क्या साहित्य की सत्यता तुलनात्मक हो सकती है? क्या एक साहित्य की सत्यता से दूसरे साहित्य की सत्यता पर सवाल उठाया जा सकता है?

ना जाने कितने सवालों से हमारा मन उलझा ही रहता है। ना जाने वह क्यों साहित्य के प्रमाण तलाश रहा है। व्यक्तिगत ही नहीं सामाजिक मन भी क़ाबू में कहाँ है?

अगर होता तो एक आदर्श समाज को राजनीति की कभी जरूरत नहीं पड़ी होती। साहित्य से ही उसका काम चल गया होता। बाक़ी सवालों का जवाब विज्ञान हमें देने में सक्षम है ही। चलिए अगले निबंध में राजनीति के दार्शनिक, साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक आयामों पर चिंतन करते हैं । फिर अर्थ पर थोड़ा मंथन करते हुए ज्ञानाकर्षण की पहली परिक्रमा पूरी होगी। अब तक का सफ़र आपका कैसा रहा? टिपण्णी कर हमें बताना ना भूलें!

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.