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भयानक है? या लुभावना?  
समृद्ध है? या दरिद्र?

ख़ैर, जैसा भी है, अनुमान इसका ज़िक्र थोड़ा डरावना ही होता है। ऐसा लगता है कि कोई गड़े मुर्दे उखाड़ने बैठा हो। अक्सर हमारी मंशा भी ऐसी ही होती है, भूत में हम तभी भटकते हैं जब हमारा वर्तमान या भविष्य किसी ख़तरे में होता है। इन संकटों की जड़ तक पहुँचने हम अपना अतीत टटोलते हैं। संभवतः इसलिए इतिहास अक्सर लाल या काला ही नज़र आता है। हरियाली का दर्शन तो साहित्य में मिलता है। मगर जब साहित्य भी इतिहास की दरिद्रता से ग्रस्त होने लगता है, तब जिस ख़तरे का घंटा गूंजता है, वह समाज की चेतना में क्रांति लाता है। ऐसी ही क्रांतियों की गाथा इतिहास हमें सुनाता है।

यह ना सिर्फ़ हमारे बचपन का भूत है, जहां तारीख़ों को याद करने में हमें हमारे पूर्वज याद आ जाया करते थे, जिनका ज़िक्र करना इतिहास भी भूल गया। बल्कि, यह मानवता के समूचे अतीत का दर्पण भी है। साहित्य के अलावा सिर्फ़ एक इतिहास ही तो है, जिसे भूत-प्रेत दिखायी देते हैं। लेकिन इतिहास केवल भूतकाल का प्रामाणिक संग्रह ही नहीं है; यहाँ संभावनाएँ भी मिलती हैं, और कुछ ऐसे सपने भी जो आज भी पूरे करने लायक़ हैं। जैसे लोकतंत्र का सपना। वैसे तो इस निबंध में दर्शन के इतिहास पर चर्चा होनी थी। चलिए! उसे पहले हम इतिहास की अवधारणा और उसकी व्यावहारिक ज़रूरत को समझने की कोशिश करते हैं।

इतिहास की दार्शनिक ज़रूरतों पर जर्मन दार्शनिक Hegel ने गंभीरता से चिंतन किया है। अपनी वैचारिक यात्रा में वे एक बहुत मज़ेदार निष्कर्ष पर पहुँचे, जिनको उन्होंने इन शब्दों में संजोया — “हमने इतिहास से यह सीखा है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा।”

यह कथन विडंबना को दर्शाता है कि कैसे इतिहास बार-बार स्वयं को दोहराता है क्योंकि मानव अतीत से सबक लेने में असफल रहता है। हालांकि Hegel की मृत्यु हिटलर के जन्म से कई दशक पहले हो गई थी, उनके विचारों की प्रासंगिकता समय की सीमाओं को पार कर गई। जिस सदी की शुरुआत में Hegel ने इतिहास की महत्वपूर्णता को रेखांकित किया, उसी सदी के अंत में हिटलर की तानाशाही ने दुनिया को दिखा दिया कि इतिहास से सबक लेना कितना अनिवार्य है।

सोचिए अगर Hegel का सामना हिटलर की कुरूरता से हुआ होता, तो वे क्या कहते?  
 
मानवता को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा प्राणी होगा जिसे अपने भविष्य की इतनी चिंता होगी। इसलिए, इतिहास की ज़रूरत भी सिर्फ़ तार्किक प्राणी को ही होती है। क्योंकि, भविष्य का अनुमान वह इतिहास से मिले ज्ञान के आधार पर ही कर सकता है। विषय कोई भी हो, पढ़ते हम उसका इतिहास ही हैं। क्या विज्ञान की किताबें हमें इतिहास के पन्नों से उन सिद्धांतों को छाँटकर नहीं देती हैं, जो काल के परे हैं?

न्यूटन के नियम समय और स्थान पर निर्भर नहीं करते। वे हमारे वर्तमान को भी संचालित करते हैं। पर, जो नियम क़ानून अकबर के दरबार में, या नेहरू के लोकतंत्र में लागू होते थे, वे आज हमें परेशान नहीं करते। पर, अपनी परेशानियों का बोझ हम इतिहास पर डालने से कब कतराते हैं? ऐसे ही कुछ नियम, क़ानून, घटनायें और चरित्र की कहानी प्रमाण सहित जब कोई साहित्य सुनाता है, तब वह इतिहास कहलाता है। नेहरू के लोकतंत्र से जुड़े प्रमाण हमारे सामने हैं, पर अकबर पुराने हैं, प्रमाणों के अभाव में अकबर इतिहास में कम और साहित्य में ज़्यादा नज़र आते हैं। अकबर बीरबल के किस्से कहानियाँ आज भी हमारे बचपन को समृद्ध करते हैं। वर्तमान से जो जितना दूर होता है, उतना काल्पनिक होता जाता है।

Hegel के अनुसार विचारों का विकास तीन स्तरों पर होता है। पहला, Thesis जहां हम एक अवधारणा की रचना करते हैं। फिर, Anti-Thesis जहां हम उस अवधारणा को काटने का प्रयास करते हैं। और अंत में Synthesis जहां हम दोनों छोर को जोड़ने की कोशिश करते हैं।

विज्ञान की विचारधारा भी Dialectic के इसी पद्धति का पालन करती आयी है। Sceinticism का आंदोलन ऐसे ही किसी वैचारिक बुनियाद पर हुआ होगा। वैसे, Dialectic Method पर चर्चा करने वाले ना पहले दार्शनिक Hegel थे, ना ही वे आख़िरी होंगे। जब सुकरात ने ग्रीक दर्शन की नींव रखी थी, तब से यह वैचारिक पद्धति हम जैसे दार्शनिकों की अवधारणाओं और कल्पनाओं को आकार देती आयी है।

इतिहास तो हमें बस मौक़ा देता है, जानने और समझने का की कैसे हम विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक Synthesis तक पहुँचे जो आज भी हमारे अस्तित्व पर अपना असर डालते हैं। हर विषय अपना इतिहास हमें इसीलिए पढ़ाता है, ताकि हम उस विधा में अब तक हुए विकास के अध्ययन के आधार पर विकास की माला में एक नया मोती जोड़ पायें। भविष्य का अनुमान प्रामाणिक रूप से जितना बेबुनियाद होगा, उतना ही ख़तरनाक होगा। और ख़तरा ही एक ऐसा मुद्दा है, जो हमें भविष्य की चिंता करने पर बाध्य करता है।

आज आपके लिये सिर्फ़ चिंतन का एक विषय नहीं है, बल्कि शोध की एक परियोजना भी है। इतिहास की ज़रूरत को समझते हुए आप अपने इतिहास, परिवार और पूर्वजों को जानने और समझने की कोशिश करें। हो सके तो प्रमाणों को भी इकट्ठा करें कि कोशिश करें। साथ ही अपने इस ऐतिहासिक अनुभव को हमारे साथ साझा करें। मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आपकी टिपण्णियों का इंतज़ार करूँगा।

दर्शन के इतिहास पर लौटने से पहले कुछ और परिभाषाओं पर वैचारिक सामंजस्य बनाने की कोशिश करते हैं। जैसे, समाज क्या है? अर्थ की अवधारणा क्या है? राजनीति से लेकर साहित्य के मनोविज्ञान पर थोड़ा चिंतन कर लेते हैं। Liebnitz ने Liberty की बड़ी मज़ेदार परिभाषा दी है, हम उतने ही आज़ाद हैं, जितना हम जानते हैं। तो चलिए ज्ञान को आकर्षित करने के इस सफ़र पर अगले अध्याय में समाज की अवधारणा पर मंथन करते हैं।