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प्रस्तावना

इहलोकतंत्र भाग ५ (DevLoved Productions: प्रयोग और परिणाम), (सत्य की स्थापना और आग्रह)

लानत है इस गणतंत्र पर, देश के संविधान पर, जब देश का सच ऐसा है। भागलपुर के प्रोफेसर कॉलोनी के सामने देश का दरिद्र भविष्य गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर मुजरा करते हुए! दो पैसे कमाकर पेट भरने को मजबूर गणतंत्र! जिसका भविष्य इतना भूखा है कि धर्म नहीं जानता। पाखंड को अर्थ बताकर मुद्रण बटोरता है। इस ७४वें गणतंत्र दिवस(२०२४) का मैं बहिष्कार करता हूँ। देश का मूर्ख प्रधानमंत्री थाली ताली पीटवा रहा है। और हम पीट भी रहे हैं। पागल हैं क्या?
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मैं तो पागल हूँ ही, जो अच्छे दिनों में बकवास लिख रहा हूँ। ना दे मेरा कोई साथ, मैं लेखक हूँ। अपनी किताबों में इस देश-काल का भोगा सच लिखकर मर जाऊँगा। मगर ऐसी जहालत में मैं चुप तो नहीं रहूँगा। मैं अपनी बेटी से प्यार करता हूँ। मैं लड़ूँगा। मेरा संघर्ष सामाजिक है, और साहित्य मेरा हथियार! अपनी छठी किताब लिखने जा रहा हूँ। मैं सिर्फ़ समस्या नहीं बताऊँगा। मैं तो समाधान तलाश रहा हूँ। एक कल्पना मैंने कुछ लोगों से साझा की, प्रयोग और अब तक का परिणाम बताऊँगा। आगे का रास्ता तलाशूँगा। पर ऐसे कायर जैसा जय-जयकार नहीं लगाऊँगा। मैं ज़िंदा हूँ, और मैं इस बात का प्रमाण दूँगा।

जिस देश में हर दिन ५०० लोग आत्महत्या कर रहे हैं। मज़ाक़ मज़ाक़ में रोज़ के रोज़ १०० बलात्कार हो जा रहे हों, और देश की जवानी राम-राम कर रही है। किसान मर रहे हैं। मज़दूर मर रहे हैं। छात्र ख़ुद की ख़ुशी के लिये मर रहे हैं। क्योंकि आज मर जाना आर्थिक बुद्धिमानी है। जाहिल लोकतंत्र! उस देश में मुझे अपनी बेटी के लिए जगह बनानी है।

झूठ है यह लोकतंत्र! मैं अपना इहलोक इससे अलग बसाऊँगा! वहाँ मैं इहलोकतंत्र चलाऊँगा। वैसे भी Democracy का सही अनुवाद इहलोकतंत्र या लोगतंत्र होना चाहिए था। क्योंकि, demo का शाब्दिक अर्थ लोक नहीं, लोग होता है। तभी तो परलोक भरोसे यह समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र चल रहा है।

मैं आज जो कुछ भी कर रहा हूँ, इसलिए कर रहा हूँ कि उस दिन, जिस दिन मेरी बेटी का बलात्कार होगा — मैं उससे आँख मिलाकर कह सकूँ कि इस दिन को रोकने से मैंने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की थी। मैं अपनी असफलता का कारण भी प्रमाण सहित दिखाऊँगा। ताकि उन तर्कों के आधार पर वह अगले दिन की कल्पना कर सके। कहीं आत्महत्या ना कर ले! क्योंकि देश की सरकार जो आँकड़े दे रही है, उस हिसाब से जिन माँ, बहनों, और बेटियों की इज्जत बची हुई है, क़िस्मत की बात है। इस समाज ने तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है, जो इस हादसे को रोक पाये। सबसे गंभीर बात तो यह है कि कोई और कुछ करने को तैयार भी नहीं है। लोक तो इन तथ्यों को ही मानने से इंकार कर देता है। पता नहीं देश के कितने लोगों को इन अकड़ों के बारे में पता भी होगा। नहीं भी होगा तो क्या वे अपने-अपने इहलोक से उसकी दरिद्रता का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं ले सकते? विचित्र विचित्र वाहियात कल्पनाएँ हमारे चारों ओर मंडरा रहा है। जीवन आज संकट में है।

अगर यही राम-राज्य है, तो थूकता हूँ मैं ऐसे देश-काल पर! इस शिक्षा व्यवस्था में अपनी बेटी को पढ़ाने से अच्छा है, मैं उसे अनपढ़ रखूँ। कम से कम उसके पढ़े लिखे भाई, उसके शिक्षक तो उसका शरीर नहीं नोचेंगे। मूर्ख रहेगी तो लड़ेगी। बहुत हुआ तो चाय बिकाऊँगा। क्या पता एक दिन वह भी देश का प्रधानमंत्री बन जाये? मैं उसे प्रधानमंत्री बनाऊँगा। पढ़ लिखकर लोग कायर हो जाते हैं। एक नौकरी के लिए अपना ईमान नीलाम कर आते हैं। कोई नहीं बताता है कि नेता कैसे बनते हैं? मैंने तो किसी रणनीति विज्ञान के छात्र को सरपंच तक का चुनाव लड़ते नहीं देखा, ना ही साहित्य के छात्रों को लेखक बनते देखा है। लोग कैसे लेखक बनेंगे? अक़बर का राज तो है नहीं कि कला और साहित्य के प्रोत्साहन के लिए नवरत्न तलाशे और तराशे जाएँगे। लोक राजा है, वह जानता ही नहीं। एक बार फिर उसे बताऊँगा।

इस भाग में मैं समाधान तलाशूँगा और आगे की योजना भी बनाऊँगा। अपने अनुभव, लेखन और जिजीविषा के आधार पर मैंने एक परियोजना की कल्पना की, उस कल्पना का नाम मैंने “DevLoved Productions” रखा है। मेरे दृष्टिकोण से यह एक आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक प्रयोग है, जिसकी बुनियाद साहित्य पर टिकी है। लगभग एक महीना हो चुका है, इस प्रयोग को शुरू किए, अभी तक तो निराशा ही हाथ लगी है। आगे देखते हैं कि क्या करना है?

पहले, इस महीने का परिणाम लिख लूँ। मन खीज रहा है। अभी-अभी सीरी ने गाना बजाया है, जो मुझे उम्मीद दे रहा है। मैं उनका आभारी हूँ जिसने इसे गाया है, और उनका भी जिन्होंने इसकी रचना में अपनी भूमिका निभायी है। उस गाने का विवरण कुछ इस प्रकार है —

गाना: ये सफ़र बहुत है कठीन मगर
चित्रपट: १९४२ अ लव स्टोरी
संगीतकार: राहुलदेव बर्मन
गीतकार: जावेद अख्तर
गायक: शिवाजी चटर्जी

मैं इन सब का आभारी हूँ। उनका भी जिन्होंने मेरी ‘हाँ’ में हाँ मिलाया, और उनका भी जो मुँह पर गाली देकर चले गये। कुछ ऐसे भी मिले जो बस दिलासा देकर चले गये। जाने-अनजाने कुछ दिल तोड़कर गये। मैं उन सबका आभारी हूँ। क्योंकि, उनका होना भी उतना ही ज़रूरी है, जितना उनका ना होना ज़रूरी है। जगत मिथ्या है, यहाँ मनोरंजन ही तो ज़रूरी है। ख़ैर, अभी तक की कहानी सुनाता हूँ। आपको नहीं, मैं ख़ुद को सीख-सीखा रहा हूँ। मेरे जीवन के अध्याय हैं, मेरे लिये तो हर अध्याय ज़रूरी है।

अपनी पाँचवीं किताब ७ दिसंबर, २०२३ तक पूरी कर ली थी। उसके बाद मैंने “The Hobbit” और “The Lord of the Rings” नाम की मूवी ख़रीदी और देखने बैठ गया। पिछले चार-पाँच सालों से हर साल कुछ साहित्य को दुहरा कर देखता रहा हूँ। जिसमें इनके अलावा भी कुछ बेहतरीन साहित्य जुड़े हुए हैं। कुछ पटकथा के रूप में हमारे बीच मौजूद हैं, चलचित्र देखना पढ़ने से आसान होता है। इन दोनों चलचित्र की कल्पना, “J. R. R. Tolkien”(टोल्किन) के  उपन्यास में मिलती हैं। जिन्हें बखूबी पटकथा के रूप में पाश्चात्य निर्देशक और निर्माताओं ने आकर दिया। संभव है, शब्द के रूप में ये कल्पनाएँ कम ही चेतनाओं तक पहुँच पायेंगे। मैंने कई बार कोशिश की है, पर मैं टोल्किन की रचना को पूरी पढ़ नहीं पाया। उनका लेखन गूढ़ है। पढ़ने के लिए नोट्स बनाने पड़ते हैं। मैं आज तक तो नहीं बना पाया हूँ। पर, कोशिश जारी है।

हर साहित्यिक रचना की तरह यह रचना भी अपने काल और देश का विवरण देती है। टोल्किन ने पहले और दूसरे विश्व-युद्ध को देखा। हिटलर की कुरूरता के वे प्रत्यक्ष हैं। उनकी रचना पर भी इतिहास के इन पन्नों का दुख-सुख देखने को मिलता है, जिसने मानवीय संविदेना को झकझोर कर रखक दिया था। टोल्किन ने इतिहास से किरदार उठाकर, एक कालापनिक दुनिया में पटक दिये। मेरी समझ से हिटलर की भी उतनी ही ज़रूरत इतिहास को है, जितनी गांधी की है। सोचिए, अगर हिटलर ना होते तो तीसरा विश्व-युद्ध होने से कौन रोक सकता था?

अपनी रचना में मैं ऐसे सवाल-जवाब से टकराता एक मुक़ाम तक पहुँचा। साहित्यिक मुक़ाम है, काल्पनिक, बाक़ी हर अवधारणा या सच की तरह, जैसे मैं भी एक मिथ्या ही तो हूँ। आप इनकार करेंगे, पर सत्य अखंडित ही हो सकता है। ये कोई संयोग तो नहीं हो सकता है कि हर दर्शन इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है। सनातन दर्शन जिस सत्य को ब्रह्म बताता है, पाश्चात्य दर्शन उसे ही ऐब्सलूट का नाम देता है। सत्य अखंडित है, तो उसका ज्ञान कैसे संभव है?

ज्ञान की बुनियाद ही खंडन पर आधारित है। इसलिए अगर सत्य संभव है, तो उसके ज्ञान की व्याख्या संभव है ही नहीं। फलस्वरूप ईश्वर, अल्लाह, गॉड या कोई भी कल्पना संपूर्ण सत्य नहीं हो सकते। तभी सनातन दर्शन ब्रह्म को सत्य मानता है। ख़ैर, यहाँ मैं कोई दार्शनिक बकवास करने नहीं बैठा हूँ। चाहूँ ना चाहूँ कहीं ना बकवास करता ही जाऊँगा। सोचता हूँ इसे भी एक किताब का रूप दे देता हूँ। क्योंकि, मेरे लाख चाहने लेने से भी कोई सपना सच तो नहीं हो सकता है। मैं ग़ुलाम रख सकता हूँ, हर कोई ग़ुलाम बन जाने को लालायित नज़र आता है। यह किताब उनकी मानसिक ग़ुलामी के नाम!

छोटे काल खंड की किताब है, इसलिए ख़ुद से उम्मीद करता हूँ कि विस्तार से अपने प्रत्यक्ष का विश्लेषण कर पाऊँ। देखते हैं! मैं कितना सफल होता हूँ। क्योंकि, यह रचना भी उसी एक प्रयोग का हिस्सा है, जो जीवन के नाम पर अभी तक मेरे साथ चलता आया है। यह “DevLoved Productions” की कहानी है। मेरे पिछले महीने का प्रत्यक्ष, मेरे इहलोक का अनुमान, कुछ उपमान भी मिल सकते हैं, शब्द तो हैं ही, कुछ बातें मैंने मान रखा है, अर्थापत्ति में भी तो ज्ञान है। और हाँ! सबसे ज़रूरी अभाव का ज्ञान, जिसकी अखंड प्रमा बालकाल को परमहंस बना देती है। मेरे इहलोकतंत्र का अगला भाग, पाँचवा भाग! मेरी छठी किताब, कोई और ना, ना सही उम्मीद तो कर ही सकता हूँ कि एक दिन पढ़-लिखकर मेरी बेटी मुझे तो पढ़ेगी, शायद उसका इहलोक ही थोड़ा बेहतर हो जाये। उम्मीद ही तो आस्था है। ना जाने मेरे चाहने वाले इतने निराश क्यों हैं?

इस काल और स्थान से गुजरता वर्तमान ही तो अखंड है। स्मृति में ज्ञान नहीं है। ना ही भ्रम, संशय और तर्क में, फिर भी जिसे देखो वो यहीं ज्ञान तलाश रहा है। चेतना फँसी हुई है, कई गाँठें हैं, कई उलझनें, रास्ता सीधा है। पर सीधा रास्ता अदृश्य होता है — जैसे, सागर में रास्ता ढूँढता कोई जहाज़। अनंत रास्ते, अनंत संभावनाओं के साथ सामने हैं। पर, हर कोई वास्को डी गामा तो बन नहीं सकता। कई विधा है, अभिव्यक्ति के कई रास्ते मौजूद हैं। तकनीक के विकास के साथ अभिव्यक्ति के नये-नये मंच सामने आये हैं। मैं भी इस भाग में नयी अभिव्यक्ति को तलाशने निकला था। अफ़सोस! अभी तक निराशा ही हाथ लगी है। इसलिए, सोचा पहले अपने अनुमान और प्रयोग को शब्द दे देता हूँ। तब जाकर शायद किसी के ज्ञान का पात्र मैं भी बन पाऊँ। ज़रूरी नहीं है। आज तक तो मुझे शायद ही किसी ने पढ़ा होगा, ज़रूरी हैं भी नहीं। पर, यह मेरी कल्पना है कि मैं ग़ुलामी का जीवन नहीं जीने वाला। मैं समस्या का संज्ञान लेते हुए समाधान की कल्पना लिख रहा हूँ। दोनों एक दूसरे से अलग हैं भी नहीं, एक दूसरे से टूट-बिखर गये हैं। मैं तो बस अनुभव के बिखरे मोतियों को एक माला में पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ। इतना तो मैं अकड़ ही सकता हूँ।

आख़िर! रोज़गार से मैं एक लेखक हूँ, एक बेरोज़गार दार्शनिक! तो चलिए शब्दों में एक नया दर्शन तलाशने की कोशिश करते हैं। मैं आपका भी आभारी हूँ, आख़िर अपनी चेतना में आप मुझे जगह दे रहे हैं। स्वेक्षा से ही स्वराज संभव है। कोई स्वराज हमारे ऊपर आरोपित कर भी नहीं सकता है।

यहाँ मैं अपना स्वराज रच रहा हूँ। बिना ख़ुद को जाने कोई रच कैसे सकता है?

 

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.