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प्रस्तावना

इहलोक, मेरा इहलोक! मेरे अस्तित्व के साथ-साथ बढ़ता ही जा रहा है। समय और स्थान के साथ साँसों से जुड़ी चेतना की यात्रा ही तो जीवन है। हर प्राण के साथ एक इहलोक बसा हुआ है, जिससे अनगिनत इहलोक जुड़ते, टकराते, बनते, बिगड़ते ही रहते हैं। मुझे लगा था कि ‘इहलोकतंत्र’ का तीसरा खंड आख़िरी होगा। मगर, उसका आख़िरी अध्याय का नाम ही ‘शुभारंभ’ रखा गया। मुझे लगा था कि वहाँ से मैं कुछ नया शुरू करूँगा। पर, अपनी कल्पना को मैं शब्दशः आकार नहीं दे पाया। विचारों की संरचना में ही कहीं कमी रह गई होगी। मेरी रचना मेरी जीवनी भी तो है। इसलिए, जब तक यह चेतना जीवित रहेगी, मेरा इहलोक और उसका तंत्र फलता-फूलता ही रहेगा।

वैसे, लोकतंत्र को तो महापुरुषों की जीवनी पढ़ने-पढ़ाने में दिलचस्पी रहती है। मुझसे भला कोई क्यों अपना दिल लगाएगा? सबका अन्दाज़ अपना-अपना होता है। हर कोई पुरुष ही पर्याप्त कहाँ होता है? जो उसे कोई महापुरुष का दर्जा दे सके! ख़ैर, मैंने तो ऐसी कोई जीवनी या आत्मकथा नहीं पढ़ी है, जो किसी साधारण व्यक्ति की रही हो। मैं इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा पता हूँ कि किसी मामूली प्राणी के जीवन में किसी को क्या रुचि हो सकती है?

क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं, जिसने आज तक जीवन में बिना कुछ किए सिर्फ़ अपनी जीवनी ही लिखी हो?

जो सब करते हैं, वही मैं भी करूँ तो मेरी मौलिकता ही क्या बच जाएगी?

संभवतः अपनी साधारण ज़िंदगी को ही साहित्य में जगह देने की मेरी यह कोशिश ही मौलिक है। मैं इस लोकतंत्र का अदना-सा राजा हूँ और यह मेरी कहानी है, जिसे आप पढ़ रहे हैं। राजा-महाराजाओं की कहानी में लोकतंत्र को हार्दिक दिलचस्पी होती है। सिर्फ़ ऐतिहाहिक साम्राज्य में ही नहीं साहित्यिक आधिपत्य पर भी बुद्धिजीवियों की पैनी नज़र टिकी होती है। तभी तो छोटा-मोटा सरपंच भी अपने ख़ज़ाने को समृद्ध करने की कोशिश करने में ही लगा हुआ है। चुनाव के पाँच सालों में उनके घर के सामने एक बुलेट, एक स्कॉर्पियो और घर चकमका उठता है। देश, गाँव, समाज वहीं के वहीं रह जाते हैं। अफ़सोस, मैं उस टाइप का राजा भी नहीं हूँ। शायद ही इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक-प्रतिनिधित्व करने के लायक़ मैं हूँ। आज तक तो किसी स्कूल, कॉलेज ने मुझे ऐसी शिक्षा नहीं दी है। ना ही नेता बनने के लिए प्रशिक्षण या प्रतियोगिता का आयोजन इस लोकतंत्र में होता है। मैं एक काल्पनिक राजा हूँ। जिसका शासन नहीं है, जो ख़ुद शासित है। फिर भी, मैं अपने इहलोक का राजा हूँ, जिसके तंत्र का मैं तानाशाह हूँ।

कल दिवाली थी। और मुझे मेरा इहलोक उजड़ा तबाह नज़र आ रहा था। शरीर में जीवन की कमी महसूस हो रही थी। मन से ही कोई बीमार हो सकता है। शरीर तो जन्म से निर्जीव ही होता है, मृत्यु के बाद भी मेरा मन मेरे शब्दों में शायद जीवित रह जाएगा। मृत्योपरांत जीवन की तलाश ही तो साहित्य को समृद्ध करने हेतु हमें मजबूर करती आयी है। आज तक साहित्य मुझे जीवन देता आया है। आख़िर जीविकोपार्जन के लिए मेरे माता-पिता हिन्दी और उसका साहित्य ही तो पढ़ते-पढ़ाते आये हैं। आगे भी मैं साहित्य के सहारे ही जीवन तलाशता जाऊँगा। आपकी नहीं तो किसी और की चेतना में मैं जीवित बच ही जाऊँगा। जो भी मुझे पढ़ेगा मैं उसकी चेतना में एक स्वतंत्र अस्तित्व बना लूँगा। चाहे-अनचाहे मैं आपका हिस्सा बन जाऊँगा। अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता, जो है वह जीवन है और उसकी कहानी ही तो है। क्या विज्ञान हमें कहानियाँ नहीं सुनाता? क्या न्यूटन या आइंस्टीन किरदार नहीं थे?

मैं एक ऐसा लेखक बनने की कोशिश कर रहा हूँ, जो जीवन की कहानी लिख रहा है। सिर्फ़ अतीत ही नहीं, वह अपना भविष्य भी लिख रहा है। सिर्फ़ अपनी ज़रूरतें ही नहीं, वह अपनी पहचान भी लिख रहा है। अर्थ की आपूर्ति की जद्दोजहद में वह सिर्फ़ ज्ञान ही नहीं, अपनी अज्ञानता को भी लिख रहा है। उसकी कोशिश है कि इस कल्पना के अंत में एक ऐसा किरदार खड़ा कर सके जो एक सामाजिक नायक की भूमिका अदा करने के लायक़ हो। वह ख़ुद को उस किरदार से अलग करने की कोशिश भी यहीं कर रहा है। सपना तो उसका यह भी है कि वह किरदार बड़े से लेकर छोटे पर्दे पर लोकतंत्र में प्रचलित भी हो जाये। कोई मिस्टर परफ़ेक्शनिस्ट उसके किरदार में भी जान फूंक दे। पर, उसका मक़सद इन सबसे ऊपर है। उसकी मंज़िल भी उसके अस्तित्व से कहीं आगे है। जीविकोपार्जन से बड़ा सपना अपनी पलकों पर सजाये वह अर्थोपार्जन के लिए संघर्ष कर रहा है।

आज बाल दिवस है। मेरे अंदर का बच्चा आज भी उतना ही डरा हुआ है, जितना उसका बचपन भयभीत था। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति ने मेरी चेतना को दहसत-ग्रस्त कर रखा है। मुझे अपनी बेटी की शिक्षा-दीक्षा को लेकर बड़ी चिंता है। मेरे आस-पड़ोस में एक ऐसी शैक्षणिक स्थापना मुझे नज़र नहीं आती है, जहां मैं सुकून से अपनी बेटी का दाख़िला करवा पाऊँ। जिस स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई, वहाँ आजकल शिक्षक छात्राओं का बलात्कार कर रहे हैं। बाक़ी निजी संस्थानों की भी कुछ वैसी ही दुर्गति है। सरकारी व्यवस्था की दुर्दशा क्या इस लोकतंत्र से छिपी हुई है?

मेरे इस जीवन में तो मेरी शैक्षणिक उपलब्धि और उससे जुड़े परिणाम-पत्र भी किसी को दिखाने के काबिल नहीं हैं। शायद ही इस लोकतंत्र की किसी परीक्षा में मैं खड़ा उतर पाया हूँ, या पाऊँगा। अब तो ना शौक़ ही बचा है, ना उम्मीद ही। इसलिए, मैंने ख़ुद के नया प्रमाण-पत्र बनाया है। मैंने ख़ुद ही ख़ुद की परीक्षा, पूर्ण स्वेक्षा से ली है। मैं अकेला उस परीक्षा में बैठा हूँ और ज़ाहिर है, मैं ही अव्वल आऊँगा। मैं रेस में अकेला ही भगा, तो प्रथम भी मैं ही आऊँगा। यह रहा मेरा प्रमाण-पत्र —
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ख़ुद को अभिव्यक्त करने हेतु मैंने कुल मिलाकर ४,५१,७३४ शब्द लिखे हैं, जिसे पढ़ने के लिए किसी का कम-से-कम एक दिन तो खर्च हो ही जाएगा। साहित्य है, पढ़ने लायक़ तो होगा ही। कुछ क़िस्से हैं, कुछ कहानियाँ भी, कवितायें भी हैं, कुछ सा संस्मरण भी। थोड़ा विज्ञान भी है, थोड़ा मनोविज्ञान भी। दर्शन तो हर कहीं है, यहाँ भी अगर उससे भेंट हो गई, तो क्या नया हो गया?

इस चौथे खंड में एक यात्रा है, और उसका वृतांत भी। मज़े लीजिए!

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.