पिछले निबंध में हमने देखा कि दर्शन क्या और कहाँ नहीं है, साथ ही उसके सकारात्मक पक्ष पर भी हमने चिंतन करने की कोशिश की। चलिए! आज हम दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर अटखेलियाँ खेलते हैं। देखते हैं कि ज्ञान युग की हरियाली के पीछे दर्शन के कौन-कौन से रंग बिखरे हैं। दर्शनशास्त्र की मुख्यतः पाँच शाखायें हैं, जहां से ज्ञान की अनंत शाखायें फूटती हैं और हर दिशा में जीवन का प्रचार-प्रसार करती हैं। दार्शनिक होने के नाते ना हमें भूत से कोई लेना देना है, ना ही भविष्य से। ऐसी दशा में सिर्फ़ एक ही विकल्प हमारे पास बच जाता है — वह है वर्तमान के अध्ययन का। जहां हम अपने वर्तमान का आँकलन और अवलोकन करते हैं। दर्शनशास्त्र की शाखायें कैसे वर्तमान से जुड़कर हमारी अवधारणाओं और कल्पनाओं को आकार देती हैं, चलिए इस निबंध के जरिए सोचने का प्रयास करते हैं।
ज्ञान के इस इतिहास की पहली कड़ी Metaphysics या तत्व-मीमांसा है। कभी ना कभी आपके साथ भी ऐसा जरुर हुआ होगा कि आपने भी अपने अस्तित्व पर सवाल उठाये होंगे। किसी दिन नींद से जागकर आपको भी लगा होगा कि जो सपना था वो सच था? या खुली आँखों को दिखती यह दुनिया एक स्वप्न है? कल्पनाओं ने पहली बार उड़ान संभवतः इसी शाखा से भरी होगी। आधुनिक विज्ञान फिलॉसफी के इन्हीं सवालों पर अपनी व्याख्या दे रहा है। आइये एक नज़र उन सवालों पर डालते हैं, जो Metaphysics हमें पूछने की सलाह देता है।
पहला सवाल — “अस्तित्व क्या है? ”
तत्व-मीमांसा यह खोजता है कि अस्तित्व का अर्थ क्या है। इसमें यह प्रश्न भी शामिल है कि क्या केवल भौतिक वस्तुएँ ही अस्तित्व में हैं या कल्पनाओं, संभावनाओं, और विचारों का भी स्वतंत्र अस्तित्व संभव है।
दूसरा सवाल — “वस्तुओं की प्रकृति क्या है? ”
व्यक्ति और वस्तु में क्या अंतर है? क्या किसी व्यक्ति को वस्तु के रूप में प्रयोग किया जा सकता है? यहाँ दर्शन अस्तित्व की सूक्ष्मता को समझने की कोशिश करता है। संभवतः यहीं कहीं नीतिशास्त्र के सवालों का भी जन्म हुआ होगा।
तीसरा सवाल — “वास्तविकता क्या है? ”
इस सवाल के मुख्यतः दो पहलू हैं — एक व्यक्तिगत और दूसरा सामाजिक। एक जो अब मनोविज्ञान की जिम्मेदारी बन चुका है, और दूसरा बाक़ी सामाजिक विज्ञान की हर शाखा की बुनियाद है। इस सवाल का एक तीसरा पहलू भी है, जो सत्य है, जिसकी व्याख्या दार्शनिक करते हैं। यहीं से Epistemology या ज्ञान-मीमांसा के सवाल टूटकर ज्ञान-विज्ञान की हर विधा में बिखर जाते हैं।
चौथा सवाल — “समय और स्थान की प्रकृति क्या है? ”
Time and Space की प्रारंभिक व्याख्या दार्शनिकों ने ही की थी। इन्हीं अनुमानों की व्याख्या जब गणित की भाषा में संभव होने लगा, तब Metaphysics ने अपनी Meta भूमिका से संन्यास ले लिया। क्योंकि Physics अब ऐसे सवालों पर प्रामाणिक व्याख्या देने में सक्षम है। भौतिकी ने हाल फ़िलहाल में ही God Particle की खोज की है। String Theory से लेकर ना जाने कितने सिद्धांत अब Space और Time की सटीक व्याख्या कर पाने में सक्षम हैं।
परंतु शायद ही ऐसा कभी कोई देश और काल होगा जहां विज्ञान की जिज्ञासा कभी शांत हो पाएगी।
पाँचवाँ सवाल — “कारणता क्या है? ”
हमारे जीवन में जो हुआ, अच्छा हुआ या बुरा, किस कारण हुआ, क्यों हुआ — क्या हर दिन हर पल हम ऐसे ही किसी सवाल से नहीं उलझे रहते हैं? क्या विज्ञान हमारे जीवन में घटी हर घटना का जवाब दे सकता है? संभवतः नहीं। इसलिए, जहां विज्ञान की सीमा समाप्त होती है, वहीं से भगवान की परिभाषा शुरू होती है। जब तक मौसम विज्ञान ने बारिश को नहीं समझा था, और सिंचाई की आधुनिक व्यवस्था हमारे खेतों को सींचने में सक्षम नहीं थे, तभी तक इंद्र का देवलोक क़ायम था। कृषि-प्रधान भारतीय संस्कृति से पुरंदर इंद्र की भूमिका ना जाने कहाँ विलीन हो गई?
कुछ और भी सवाल हैं, जिन पर Metaphysics चिंतन करता आया है। इन सवालों की ख़ास बात यह है कि इनका जवाब व्यक्ति-विशेष पर निभार करता था, और तब तक करता रहेगा जब तक हमारे जीवन से मन जुड़ा रहेगा। जैसे, पहचान और परिवर्तन क्या है? संभावना और आवश्यकता क्या है? चेतना और मन की प्रकृति क्या है?
वैसे तो फिलॉसफी की इस शाखा के औपचारिक समापन की घोषणा 1924 से लेकर 1936 के बीच हुए Vienna Circle में जुटे बुद्धिजीवियों ने कर दी थी। क्योंकि उनका मानना था कि जिज्ञासा की इस दिशा में किसी नये निष्कर्ष पर पहुँचना अब संभव नहीं है। सबसे मज़ेदार बात यह है कि जिन निष्कर्षों पर पाश्चात्य दार्शनिकों ने Metaphysics के समापन की घोषणा की, वहीं से भारतीय दर्शनशास्त्र की शुरुआत होती नजर आती है। कई पाश्चात्य दार्शनिकों ने जिक्र भी किया है कि कैसे भारतीय दर्शन से वे प्रभावित हुए। आर्थर शोपन्हाउअर ने बताया है कि भगवद्गीता के अध्ययन ने कैसे उनकी फ़िलॉसफ़ी पर प्रभाव डाला है।
गौर से देखिए, उपनिषदों के इन चार महावाक्यों को:
पहला, प्रज्ञानं ब्रह्म - मतलब, चेतना ही ब्रह्म है
दूसरा, अहम ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हूं
तीसरा, तत् त्वम् असि - तू वह है
और चौथा, अयम आत्मा ब्रह्म - यह आत्मा ही ब्रह्म है
संभवतः भारत को विश्व गुरु की उपाधि यहीं कहीं मिली होगी। Hegel के Absolute को जब ब्रेडले महोदय ने Concrete बना दिया, तब भी निष्कर्ष कुछ ऐसा ही था, जैसा अद्वैत दार्शनिक सदियों से हमें समझाने की कोशिश कर रहे थे। जब ब्रह्म सत्य होता है, तब जगत मिथ्या बन जाती है। यही नहीं अगर जगत को सत्य मान लिया जाये तो तार्किक रूप से ब्रह्म मिथ्या बन जाता है। क्योंकि पारिभाषिक स्तर पर ब्रह्म की जगह कोई भी शब्द ले सकता है। जो अखंडित है, उसका ज्ञान संभव नहीं हो सकता है। क्योंकि ज्ञान की अवधारणा ही विखंडन से संभव है।
ख़ैर, जैसा कि आपने देखा तत्व-मीमांसा से जुड़ा हर सवाल आज भी हमारे लिए कितना जरुरी है। क्योंकि ऐसा हर सवाल हमारे वर्तमान से जुड़ा होता है। व्यावहारिक जगत में time and space की सीमा में सत्य सिर्फ़ वर्तमान का संभव है। नयी कल्पनाओं की उड़ान भरने से पहले क्या यह व्यावहारिक बुद्धिमानी नहीं होगी कि हम इन सवालों का सामना करते हुए दर्शन को ख़ुद के लिए परिभाषित करने का प्रयास करें, ताकि एक बेहतर दुनिया की कल्पना को सामाजिक आकार देने में हम अपनी भूमिका ईमानदारी से निभा सकें?
हर इन सवालों में एक अवधारणा सामान्य रूप से मौजूद है। क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि हम किसकी बात कर रहे हैं?
आपने सही समझा, हम ज्ञान की अवधारणा की बात कर रहे हैं। जो फिलॉसफी की दूसरी शाखा का अस्तित्व तत्व से आज़ाद कर देती है। जी हाँ! हम ज्ञान-मीमांसा या Epistemology की बात कर रहे हैं।
ज्ञान क्या है?
ज्ञान के स्रोत कहाँ हैं?
बाह्य दुनिया के अस्तित्व को हम कैसे जान सकते हैं?
सत्य क्या है?
विश्वास का साक्ष्य से संबंध क्या है?
मानव ज्ञान की सीमाएँ क्या हैं?
ज्ञान युग में अर्थव्यवस्था के केंद्र में सूचनाएँ नहीं ज्ञान है। ज्ञानाकर्षण के इस मंच पर हम विस्तार से
ज्ञान से जुड़े इन सवालों पर चर्चा करेंगे। ना सिर्फ़ उसके दार्शनिक पहलू पर, बल्कि उसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक आयामों पर भी हूँ, अपनी अवधारणाओं और कल्पनाओं को आकार देने की कोशिश करेंगे।
ध्यान से देखियेगा तो ज्ञान से जुड़े सवालों के जवाब वर्तमान से न्याय का हमारा निवेदन ही तो हैं। इस तरह हम पहुँचते हैं, दर्शनशास्त्र की तीसरी शाखा पर जो है नीतिशास्त्र। आज भी कोर्ट कचहरियों में हम न्याय की अपेक्षा पाले उन सवालों को लिए चक्कर लगा रहे हैं, जो नीतिशास्त्र के अन्तर्गत आते हैं।
नैतिकता क्या है?
सही और गलत के बीच का अंतर कैसे निर्धारित किया जाए?
नैतिक उत्तरदायित्व क्या है?
नैतिक नियमों का आधार कहाँ है?
नैतिकता के सिद्धांत क्या हैं?
नैतिक संकट कैसे हल किया जा सकता है?
नैतिकता और कानून के बीच क्या संबंध है?
नैतिकता कैसे विकसित हो सकती है?
व्यक्तिगत और सामाजिक नैतिकता के बीच क्या संबंध है?
नैतिकता के वैश्विक मानदंड क्या हो सकते हैं?
क्या आपको यह एहसास हुआ कि किस तरह नीतिशास्त्र का भी हर सवाल हमारे वर्तमान को केंद्र में रखता है। सही और गलत के बीच का चुनाव हमारे अनुभवों को आकार देता है, जो अवधारणाओं के रूप में हमारे ज्ञानकोश में शामिल होता जाता है, और वर्तमान में लिया हर निर्णय हमारी इन्हीं अवधारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर करता है।
जो निर्णय हम हर पल लेते हैं, उनकी छाप हमारे अंतःकरण पर अंकित होती जाती है। जिनका प्रभाव हमारे व्यवहार में देखा जा सकता है। तार्किक प्राणी होने के नाते मनुष्य सिर्फ़ वातावरण के अनुसार फ़ैसला नहीं लेता है। जैसे बाक़ी जीवों में देखा जाता है। खाना, संभोग और ख़तरा ही पाशविक जीवन में कर्मों को संचालित करता है। पर, मनुष्य स्मृति के आधार पर अनुमान लगाने में सक्षम है। यह क्षमता तर्कशास्त्र की शाखा हमें देती है। सूचना क्रांति का सूत्रधार तर्कशास्त्र ही बनता है। क्योंकि, कंप्यूटर सिर्फ़ तर्कशास्त्र की भाषा ही समझने में सक्षम है — ‘0’ और ‘1’, ‘True’ या ‘False’, बस इतना ही कंप्यूटर समझते समझते आज इतना समझने लगा है कि इंसानों से ही इंसान होने का प्रमाण माँगने लगा है।
किसी भी कथन में निहित सत्यता को जाँचने के लिये तर्कशास्त्र के नियम महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर कोई कथन तर्कशास्त्र की परीक्षा में खड़ा नहीं उतरता, तो उसकी सत्यता निर्धारित हो जाती है कि उस कथन के सत्य होने की अब कोई संभावना ही नहीं बची है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि फिलॉसफी के अनुसार तर्कों में ज्ञान की कोई संभावना नहीं पायी जाती है। भारतीय दर्शन तर्कों को अप्रमा की श्रेणी में रखता है। अपने आप में तर्क हमें कोई नया ज्ञान नहीं दे सकते हैं। परंतु, इन नियमों के आलोक में हम अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक सच्चाई की व्याख्या जरुर करते आये हैं। आगे भी अज्ञानता को ज्ञान से जोड़ने की ज़िम्मेदारी तर्कशास्त्र ही निभाता रहेगा। हमें भी तो हर पल ज्ञान का चुनाव करना है। हरिवंशराय बच्चन ने अपनी कविता यात्रा और यात्री में इस जिजीविषा का कितना सटीक वर्णन किया है।
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
फिलहाल आज आपके लिये चिंतन का विषय है कि दर्शनशास्त्र की विभिन्न शाखाओं से आपका सामना कब और कहाँ हुआ था? इसका एक लिस्ट बनायें, और हो सके तो टिपण्णी कर हमें भी बताएँ। बात करने से ही तो बात बनती है।
दर्शनशास्त्र की पाँचवीं शाखा सौंदर्यशास्त्र है, Aesthitics। वैसे तो इस विधा पर लिखित साहित्य का अभाव प्रतीत होता है। पर, ध्यान से अगर हम अपने आस पास की दुनिया को पढ़ने की कोशिश करेंगे तो पायेंगे कि हम हर दिन अपने व्यावहारिक जीवन में इस ज्ञान और इसके अनुमान का प्रयोग करते ही आये हैं। हमारे घर आँगन में रखी हर वस्तु के पीछे सौंदर्य की अपनी एक अहम भूमिका है। विज्ञापन के इस बाज़ार में सौंदर्य ही तो बिकता है। इस वर्तमान में भी आप चाहें तो सुंदरता को हर कहीं देख सकते हैं। कहीं कम मिलेगी, तो कहीं ज़्यादा, पर मिलेगी जरुर। ना सिर्फ़ हमारे जीवन में, बल्कि जीवन के इतने लंबे सफ़र में प्रकृति ने हर कहीं सुंदरता को ही सृजन के केंद्र में रखा है।
इसके अलावा भी दर्शनशास्त्र की कई शाखाएँ हैं, जैसे Political Philosophy, या राजनैतिक दर्शन जो अब Political Science या राजनीति विज्ञान का हिस्सा बन चुका है। सामाजिक और धार्मिक Philosophy भी दर्शनशास्त्र की जिज्ञासा में शामिल हैं। मौजूदा औपचारिक शिक्षा में उच्चतम उपाधि डॉक्टर ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी (पीएचडी) की ही मिलती है। विषय कोई भी हो महत्वपूर्ण उसका दर्शन ही होता है, जो हमारी जिज्ञासा का केंद्र आज भी बनता है, आगे भी बनता रहेगा।
ज्ञानाकर्षण के इस सफ़र पर बने रहने का मैं ज्ञानार्थ शास्त्री आपका आभारी हूँ। आगे भी आपके इस साथ और समर्थन का अभिलाषी, आज अब आपको आपके मन के साथ अकेला छोड़ने की आज्ञा चाहूँगा। अगले अध्याय में हम दर्शनशास्त्र और फ़िलॉसफ़ी के उस भाग पर चर्चा करेंगे जिनसे दार्शनिक हर संभव दूरी बनाने की कोशिश करते आये हैं, क्योंकि वहाँ हम इनके भूत का सामना करने वाले हैं। आने वाले अध्याय में हम दर्शन के इतिहास से जुड़े किस्से कहानियों का भी आदान प्रदान करेंगे।