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जीव विज्ञान हमें जीवों के बारे में शिक्षित करता है, भूगोल हमें धरती की संरचना और विशेषताओं की जानकारी देता है, जबकि इतिहास हमें उन घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में बताता है जिन्होंने हमारे समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र को मौजूदा आकार दिया है। इस पृष्ठभूमि में, दर्शनशास्त्र का हमारे जीवन में क्या योगदान है? यह सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि जटिल।

जब तक विज्ञान ने समय और अंतरिक्ष के सिद्धांतों को समझना शुरू नहीं किया था, तब तक इन विषयों पर मुख्य रूप से दार्शनिकों ने ही चिंतन किया। दर्शनशास्त्र की विशालता इतनी है कि इसे किसी एक परिभाषा में समेट पाना कठिन है। यदि किसी से पूछा जाए कि एक दर्जन केले कितने होते हैं, तो जवाब सरल है: बारह। लेकिन यदि यह पूछा जाए कि एक दर्जन पानी में कितना पानी होता है, तो इसका उत्तर खोजने में दार्शनिक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। दार्शनिक सवाल करेगा कि ऐसा प्रश्न क्यों पूछा गया? क्या प्रश्नकर्ता को 'दर्जन' की अवधारणा समझ में नहीं आई, या क्या उनकी जिज्ञासा की जड़ कुछ और है?

दर्शनशास्त्र सिर्फ सवालों का जवाब खोजने में ही सहायक नहीं होता, बल्कि यह भी तय करता है कि कौन से सवाल महत्वपूर्ण हैं और कौन से नहीं। क्योंकि हमारी-आपकी समस्या का समाधान इन्हीं सवालों के ज़रिए मिलता है। यह सोचने से पहले कि दर्शनशास्त्र या फिलॉसफी क्या है? हमें यह जानना जरुरी है कि दर्शन क्या और कहाँ नहीं है?

जो सवाल विज्ञान द्वारा हल किए जा सकते हैं, उनसे दार्शनिक आमतौर पर नहीं जूझते। जैसे कभी दार्शनिक इस बात पर भी चिंतन करते थे कि पृथ्वी और बाक़ी चाँद-तारे कहाँ से आए? जीवन की शुरुआत कब और कैसे हुई? हम यहाँ तक कैसे पहुँचे? जब विज्ञान और इतिहास ने अंतरिक्ष, जीवन की उत्पत्ति, और समय के बारे में हमारी समझ को आकार दिया, तब दार्शनिकों ने इन सवालों से दूरी बना ली। लेकिन विज्ञान के निष्कर्षों की नैतिकता और उद्देश्यों की जाँच-पड़ताल करना आज भी दार्शनिकों का काम है। जहाँ विज्ञान ने जीवन और ज्ञान को एक नयी दिशा प्रदान की है, वहीं दार्शनिक उस दिशा की नैतिकता और उसके उद्देश्य पर चिंतन-मनन करते हैं।

जिन तथ्यों, कथनों या अवधारणाओं की स्थापना सामान्य अनुभव से हो सकती है, वहाँ भी फिलॉसफी की कोई जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए “हर दिन दर्शन” के इस मंच पर हम दार्शनिक चिंतन मनन करने की कोशिश कर रहे हैं। दर्शनशास्त्र से जुड़ी अवधारणाओं और कल्पनाओं का आदान-प्रदान करने के प्रयास में हम अपने सामान्य अनुभवों का आँकलन कर रहे हैं। वैसे ही अगर किसी ने कहा कि उसके हाथ में पाँच उँगलियाँ हैं, और सामान्य जाँच से उसके कथन की पुष्टि की जा सकती है, तब भी फिलॉसफी का यहाँ क्या काम?

भूतकाल से जुड़े सवालों के साथ भी दार्शनिक नहीं उलझते हैं। जैसे, गांधीजी को कब और किसने गोली मार दी, ऐसे सवाल दार्शनिक नहीं उठाते। दार्शनिक भविष्य को जितना अनिर्धारित मानते हैं, भूत भी उनके लिए उतना ही अप्रत्याशित है। कुछ दार्शनिक तो इंद्रियों से मिली सूचनाओं पर भी यकीन ना करने की सलाह देते हैं। क्यूँकि, वहाँ भी भ्रम और संशय की संभावना हो सकती है। अंधेरे में देखी गई रस्सी को साँप समझने वाले को भ्रम हुआ होगा। पर, इस बात पर उसे भरोसा ही कहाँ होता है। उसे लाख समझा दो, फिर भी उस अंधेरी गली में जहां उसे कभी साँप से मुलाक़ात हुई थी, वहाँ से गुजरने में आज भी उसका कलेजा काँप ही जाता है। जबकि वहाँ साँप कभी था या नहीं, इसकी पुष्टि शायद ही कभी हो भी पाएगी।

इसलिए, दार्शनिकों ने भूत को इतिहास के हवाले कर दिया, और भविष्य को विज्ञान के भरोसे छोड़ दिया।

गणित के नियम-कानून भी फिलॉसफी या फिलॉसफर के काम नहीं आते। गणित विज्ञान की भाषा है। विचारों का नाप ले पाये, इतना विकसित क्या विज्ञान कभी हो पाएगा?

संभवतः नहीं! विज्ञान की अपनी सीमाएँ भी हैं, और ज़िम्मेदारियाँ भी। ध्यान रहे, भले ही दार्शनिक विज्ञान के सवालों से नहीं उलझते, पर उसकी दिशा और दशा पर नैतिक और तार्किक विवेचना करने से वे पीछे भी नहीं हटते।

अगले अध्याय में हम फिलॉसफी की विभिन्न शाखाओं के बारे में जानने-समझने की कोशिश करेंगे। वहाँ हमारी मुलाक़ात metaphysics या तत्व-मीमांसा से होगी। दर्शनशास्त्र की यह शाखा प्रायः उन्हीं सवालों का सामना करती आयी है, जो आज भौतिकी या Physics के सामने हैं। इसलिए, जब से हमने ज्ञान के विज्ञान युग में प्रवेश किया है, तब से दर्शनशास्त्र की यह भूमिका आधुनिक समाज में कम होती चली गई। जिसका प्रभाव और दुष्प्रभाव दोनों ही हमारे सामने हैं। जिस अनुपात में अंधविश्वास से लेकर अपराध और भ्रष्टाचार हमारे हर दिन के अनुभव में शामिल हैं, उस आधार पर हमारे लिये यह जान लेना भी बहुत जरुरी होगा कि आख़िर दर्शनशास्त्र क्या है? क्यों आज भी उतना ही जरुरी है, और आगे भी इसकी जरूरत कम क्यों नहीं हो सकती है?

दर्शनशास्त्र या फिलॉसफी की सबसे अहम भूमिका सत्य और सत्यता की स्थापना करना है, जिसके आलोक में हम अपने लिए सामाजिक और व्यगतिगत सच्चाई की व्याख्या ख़ुद के लिए कर पायें। वैज्ञानिक और अनुभवजन्य सच्चाई ही हमारे अस्तित्व से जुड़े सारे सवालों का जवाब नहीं दे सकती हैं। जैसे, जीवन और मृत्यु क्या है? कोई क्यों मर जाता है? मर जाना क्यों जरुरी है? या हमारे अस्तित्व और जीवन का अर्थ और औचित्य क्या है? हमें क्या और क्यों अच्छा लगता है? सुंदरता की पहचान हम कैसे करते हैं? ऐसे ना जाने कितने सवाल हैं, जिनसे हमारा सामना हर दिन होता है, और हमें अपने लिए इनकी सत्य निर्धारित करनी पड़ती है। क्योंकि ये सवाल वस्तु पर नहीं, बल्कि व्यक्ति पर निर्भर करते हैं। नयी मिलती सूचनाओं और ज्ञान के आधार पर हमारी निजी और सामाजिक सच्चाई बनती-बिगड़ती भी रहती है। कभी सती-प्रथा भी तो हमारी ही सामाजिक सच्चाई थी, दहेज प्रथा से आज भी हमारा पीछा कहाँ छूटा है? कर्म, कांड और पाखंड के बीच अंतर बताना भी एक दार्शनिक चिंतन की प्रक्रिया है। जो, युगों-युगों तक चलती ही रहेगी।

सिर्फ़ इतना ही नहीं किसी भी तथ्य की तार्किक पुष्टि दर्शनशास्त्र की ही जिम्मेदारी है। विज्ञान का कोई भी सिद्धांत या प्रयोग तर्क के नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता है। यहाँ तक कि तर्कशास्त्र से खिलवाड़ करने पर साहित्य को भी माफ़ी नहीं मिलती है। साहित्य में कुछ भी संभव है, चिड़िया क्या, बंदर और आदमी भी उड़ सकते हैं। पर, साहित्य को भी उनके उड़ पाने को तार्किक रूप से स्थापित करना पड़ता है। Superman उड़ सकता है क्योंकि वह पृथ्वी की पैदाइश ही नहीं है, वह तो किसी Krypton नाम के ग्रह से आया था। कल्पनाओं को उड़ान देने के लिए साहित्य मिथकों के साथ साथ जादू का भी प्रयोग करने से परहेज़ नहीं करता।

नैतिकता की अवधारणा के आदान-प्रदान का माध्यम साहित्य ही तो बनता है। विचारों से लेकर व्यवहार तक का विश्लेषण दर्शनशास्त्र के दायरे में ही आज भी होता है, कल भी होता रहेगा।

इस प्रकार, दर्शनशास्त्र न केवल ज्ञान की प्रक्रिया में योगदान देता है बल्कि मानवीय सोच की सीमाओं को भी चुनौती देता है। यहाँ "हर दिन दर्शन" के मंच पर, हम इन सवालों का सामना करेंगे, और चर्चा करेंगे कि एक दार्शनिक होने का वास्तविक अर्थ क्या है? आखिरकार हम सब भी तो एक दार्शनिक हैं। आइये, “हर दिन दर्शन”/“Everyday Philosophy” के इस मंच पर थोड़ा दार्शनिक चिंतन-मनन करते हैं। कुछ बुनियादी सवाल-जवाब पर पूछताछ करते हैं। कुछ और नहीं तो खुद के लिए दर्शन को परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। अगले अध्याय में हम दर्शन की मुख्य शाखाओं पर अटखेलियाँ खेलेंगे। आज आपके लिये चिंतन का सवाल है कि आप अपने लिए दर्शनशास्त्र की जरूरत पर थोड़ा मंथन करें, और संभव हो तो हमें भी बताएँ। आपकी टिपण्णियों से यह सफ़र ना सिर्फ़ अर्थवान, बल्कि और आनंददायी भी बना रहेगा। पसंद आये तो आप भी अपने चाहने वालों को भी इस सफ़र पर साथ चलने को प्रेरित कर सकते हैं।

“फिलॉसफी” Philos और Sophia को जोड़कर बनाया गया था, जिसका शाब्दिक अर्थ “Love of Wisdom” होता है। प्रज्ञा से प्रेम हमारी जिज्ञासा और जिजीविषा को आदिकाल से ऊर्जा प्रदान करता आया है। मुख्य रूप से दर्शनशास्त्र का अध्ययन अस्तित्व, ज्ञान, मूल्य जैसे मौलिक प्रश्नों की गहराई में जाता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे तार्किक रूप से विचार करें और विचारों की आलोचना करें। पर, जब तक हम खुद के लिए इसे परिभाषित नहीं कर लेते, इसे समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। आख़िर, स्वर्ग, जन्नत या मोक्ष की कामना भी तो हमारी निजी सच्चाई है।

वैसे तो फिलॉसफी और दर्शनशास्त्र एक दूसरे के अनुवाद हैं। परंतु इन दोनों के विकास में देश-काल का बहुत अंतर रहा है। इस श्रृंखला में मुख्यतः फिलॉसफी का प्रयोग पाश्चात्य दर्शन को संबोधित करने के लिए किया जाएगा, और दर्शनशास्त्र का प्रयोग भारतीय फिलॉसफी को दर्शाने के लिये।

जाने से पहले, एक बार फिर इस अध्याय की मुख्य अवधारणाओं को इकत्रित कर लेते हैं। दर्शन कहाँ नहीं है?
पहला, विज्ञान जिन सवालों का जवाब देने में सक्षम है, वहाँ दर्शनशास्त्र की कोई भूमिका नहीं है।
दूसरा, अनुभव के आधार पर जो व्याख्या संभव है, वहाँ भी दार्शनिकों की कोई जरूरत नहीं है।
तीसरा, भूत और भविष्य से जुड़ी अवधारणाओं और कल्पनाओं से भी दार्शनिक नहीं उलझते।
चौथा, गणित से भी दर्शनशास्त्र का कोई लेना-देना नहीं है।

दर्शनशास्त्र मुख्यतः सत्य को निर्धारित करने और व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक सच्चाई की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण योगदान करता है। तथ्यों और सूचनाओं की पुष्टि करने में भी दर्शनशास्त्र की अहम भूमिका है। साथ ही हमारी सोच, अवधारणाओं और व्यवहार से जुड़ी नैतिकता पर प्रकाश डालना दर्शनशास्त्र का काम है। जैसे कि हम रोज़ाना तकनीकी और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए, क्या कभी सोचते हैं कि इसके नैतिक पहलु क्या हो सकते हैं? अगर, आज तक नहीं सोचा, तो आज से नीतिशास्त्र की व्याख्या अपने अनुभवों के आधार पर आप ख़ुद करने की कोशिश कर सकते हैं।

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.